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आओ लौट चले हुगली से गंगोत्री की ओर (लेख)

 

भारत ही विश्व में एक ऐसा देश है, जहां प्रकृति नटी के मंच पर षट्-ऋतुयें अपना नृत्य दिखाती है और इस नृत्य की भाव भंगिमाओं-मुद्राओं की अभिव्यक्ति कर रहे है यहां के पर्व, त्योहार, रीतिरिवाज, जो किसी व्यक्ति वर्ग या समुदाय का ही नहीं, अपितु समग्र समाज के कल्याण हेतु है।

 

          कालचक्र तो गोलाकार है, वर्गाकार, ित्रभुज या आयताकार तो है नहीं। सूर्य देव जब अपने रथ के अश्वों को उत्तरायण की ओर गतिमान होने का निर्देश देते है तो मौसम की रगों को कोई गरमाने लग जाता है, वायुमंडल फागुनी होने लग जाता है, हेमंत शिशिर के गीले थपेडों के भय से जिन वृक्षों की शाखाओं ने कछुवे की भांति अपने में समेट लिया था हरित पल्लवों के प्रजनन को, अंकुरित करने लग गयी वही फिर रंग बिरंगे परिधान पहना नव पल्लवों को। दृश्य परिवर्तन होते ही महकने लगती है, दिशायें, कोकिल के मधुर-मधुर पंचम स्वरों में निनादित होने लग जाता है शून्य अमराई के बौराने पर एक नई चेतना जाग्रत होने लगती है। गुदगुदाने लगती है प्रत्येक हृदय का यह सब क्यों हो-ऋतुराज के आगमन पर!

 

          धरा को राधा जैसी पीत वसना कर दिया स्नेहिल सरसों ने जब पीताम्बर पहना, क्यों फिर कान्हा की बांसुरी संगीत मय कर देती दृश्य, द्रष्ट और स्वयं राष्ट्र को भी रंग। जमने लगी रंगीनियों का, सहसा उड़ने लगा गुलाल प्यार पिचकारियों में प्रविष्टि हुआ, उमंगे तरंगित हो उठती है हर बाल-वृद्ध की तब 1 वर्ग, वर्णभेद को मिआ देता है कोई सब के तन भिगोने गया- रुग्ण हुयी मानव की त्वचा को रोग मुक्त करने हेतु उतरवा दिये है सबके ऊनी कवच जो पहने थे दिल दानव से बचने हेतु लोगों ने गुलाबी ऊष्णता के आने पर, हवायें आबीर गुलाल को गले लगा कर घूमने लगतीहै कुसमाकर का प्रकृति के रंगमंच पर नृत्य शुरू होते ही ऐसे होता चला रहा है यह खेल, षट ऋतुओं का निरंतर इस पुनीत धरा पर। इतिहास के पृष्ठ भी इस के साक्षी है कि कैसे यहां राजा रंक सब मिल कर इस उत्सव को मनाया करते थे। सम्राट हर्षवर्द्धन के काल की होली का वर्णन तो साहितयकारों ने बड़े ही उन्मुक्त स्वर से किया है। वैसे तो प्रकति इस ऋतु में फाग खेलती ही आई है अनादि काल से किन्तु होलिका दहन का इतिहास कुछ इस तरह से मिलता है। कथा प्रह्लाद की -

 

          युग चाहे सतयुग, त्रेता द्वापर हो जब भी समय की सत्ता ने एकाधिकार कर लिया स्वर्ण पर तब सत्ताधारी में अहं की पराकाष्ठा जाग उठती है और अधिनायक वाद का जन्म होता है-दैत्यवृत्ति जाग्रत हो उठती है उसमें तब किसी को भी वह अपने समान नहीं समझता, यहां तक कि यदि कोई उसका अपना प्रिय से प्रिय व्यक्ति ही उसकी राह में आता है तो वह उसको भी पांव तले मसल डालता है और देखा भी गया है यह। साधारण आत्म बल वाला तो कोई उसके सामने टिक नहीं सकता। इतिहास ऐसे बहुत से उदाहरणों से भरा पड़ा है। ऐसी ही एक कथा पुराणों में मिलती है प्रह्लाद के पिता दैत्य राज हिरण्य कश्यप की इस नाम से ही जाना जाता है। इसका अर्थ हिरण्य स्वर्ण कश्यप  कोड़ा अर्थात् सोने का कोडे़ वाला। इसी सोने के कोड़े के बल से वह अपने को भगवान कहलाता था तब से पूजा करवाता था अपनी ऐसी असुर प्रवृत्ति वाले के घर जन्म लेता है-प्रह्लाद। जिसने विद्रोह किया उसके अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध। सत्य मार्ग पर चतने रहने पर क्या-क्या प्रह्लाद ने यातनायें सही उसे पाठक भली भांति जानते है। यहां मात्र उस घटना की ओर ही संकेत करना अभीष्ट है। जिससे होलिका दहन का रिवाज पड़ा हिरण्य कश्यप की बहन ने भी तपोबल से बरदान प्राप्त किया हुआ था, कि अग्नि उसे जला सके, किन्तु जब यह वरदान वह किसी और को दे देगी, तो स्वयं तो वह भस्म हो जायेगी ओर वह प्राणी बच जायेगा जिसे वह अपना यह वर दे देगी। जब हिरण्य कश्यप प्रह्लाद को भांति भांति की यातनायें दे चुका, तो उसने बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर प्रचंड में चिता उसे जलाने को कहा। यहां पर यह संकेत मिला है कि-

          ढोढिका का पाषाण हुदय द्रवित हो गया अपने भतीजे को देख कर ममता जाग उठी। अग्नि में प्रवेश करते ही उसने अपना वरदान प्रह्लाद को दे दिया, जिससे वह स्वयं तो राख हो गयी और प्रह्लाद फिर इस परीक्षा में सोने से कुन्दन बन कर आग से बाहर निकला।

 

          यही से आरम्भ होता है होलिका दहन का पर्व। तब से यह पर्व प्रतिवर्ष चैराहों पर होलिका दहन के रूप में मनाया जाता है जिससे सब को यहज्ञान रहे कि अन्ततोगत्वा सत्य की ही विजय होती है, चाहे अन्यायी कितना ही क्या अत्याचार करे। होलिका दहन के पश्चात जौ की बालियों को गन्ने के अग्रभाग से अग्नि में पका, उसे सेवन करने का रिवाज हमें एक दिव्य संदेश देता है- जौ - सात्विकता का, गन्ना रस का और अग्नि तप का प्रतीक इसका अभिप्राय यह है कि सात्विकता का अमृत्व रस तप से ही परिपक्व होता है- और यही सात्विकता मानव को आत्म बल प्रदान करती है,जो प्रह्लाद की भांति संसार के कष्टों और दृःखों के मोहजाल से सहज ही मुक्त करा भगवान की प्राप्ति करा देती हे।

          मानवीय प्रकृतियां भिन्न होने के कारण वैसे तो इस महापर्व को सबने अपने-अपने दृष्टिकोणों से निहारा है और अपने अपने ढंग से इसकावर्णन भी किया है-श्रृगांरिक प्रवृत्ति ने इसे कालोत्सव के रूप में सामाजिक चेतना ने अन्याय अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष में विजय के रूप में, धार्मिक विचारधाारा ने इसे सत्य पर सत्य की विजय के रूप में श्रम ने इसे अपनी खून पसीने से सींची हुयी पकी फसल को देख कर उल्लास के रूप  में इत्यादि।

 

          इसके अतिरिक्त कुछ और भी है- जब हम अपने धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करते है तो अतीत में उस काल की दण्ड प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है, जो किसी अपराधी को उससे दंडित किया जाता था। जैसे आजकल तो कारावास है, ऐसे ही उस कालखण्ड में बन्दीग्रहों की उपेक्षाा ऐसे व्यक्तियों को जो समाज विरोधी या अनैतिक कार्य करते थे, उन्हें दण्ड के रूप में नगर से बाहर एक अलग बस्ती में रहना पड़ता था। ऐसे व्यक्ति अस्पर्शनीय होते थे। जब भी उन्हें नगर में किसी कार्यवश आना होता तो बांस की खपच्चियां बजाते हुये आना पड़ता था। यह संदेश उसको इसलिये था ताकि और लोग उससे शिक्षा लें। यदि कोई भी व्यक्ति नीच, समाजविरोधी या क्षुद्रकार्य करता था, चाहे वह कितना ही उच्च वर्ण या वर्ग का क्यों हो उसे भी इसी प्रकार का दण्ड भुगतना पड़ता था। इस दण्ड विधान को प्रमाणित करते हैं हमारे रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थ भी- जा तू चाण्डाल हो जा, जा तू राक्षस हो जा।

 

          रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड की चैपाई हे-‘‘ऋषि अगस्त की शाप भवानी। राक्षस भयउ रहा मुनि ज्ञानी।।

          और उत्तर काण्ड में तो चाण्डाल पक्षी के हो जाने के शाप का भी वर्णन मिला है-सद स्वच्छ तब हृदय विशाला। तदपि होहि पच्छी चंडाला।।‘‘

 

          पुनः ऐसे व्यक्तियों को समाज में प्रविष्टि करने से पूर्व एक वृहद यज्ञ का आयोजन किया जाता था, ताकि आत्म शुद्धि के साथ-साथ वायु मंडल भी शुद्ध सुगंधित हो जाये। इस कृत्य के पश्चात समाज उन्हें गले लगा लिया करता था। होलिका दहन के पश्चात लोगों का आपस में गले मिलना, सम्भवतउसी प्रथा की ओर संकेत करता है। 

 

          आज जिस पर्यावरण के लिये हम सब रो रहे है और इसका निदान नहीं मिलता हमारे पूर्वजों ने तो सहज से ही इसका निदान निकाल लिया था। यदा-कदा हवन यज्ञ होते ही रहते थे। स्वभाव से ही धर्म भीरु है, मानव की इस प्रकृति को ध्यान में रखते हुये, इन क्रियाओं की धार्मिकता से जोड़ दिया गया था ताकि यह सुरक्षित रहें।

 

 

 

1-हिन्दी दैनिकजागरण, बरेली संस्करण दिनाक 11 मार्च 1990, पृष्ठ -11