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पंचनाथों से नथी बरेली (लेख)

 

राई का पहाड़ - इस कहावत के पीछे कई आधार है- कालान्तर मं किंवदतियों द्वारा पहाड़ बनाने का इतिहास के पृष्ठ जहां बोलते बोलते मौन हो जाते है, वहां लोक कथायें इशारों से अपनी ओर बुला कर अतीत के गर्भ से कुछ अनूठे ही रहस्यों का उद्घाटन करती है।

इसी प्रकार बरेली का वर्तमान इतिहास भी कुछ शताब्दियों पूर्व तक ही अपनी गाथा गाता है। पूरातत्त्व विभाग की अपनी सीमायें हैं- वह वहीं तक ही रह जाता है। प्रश्न उठता है- क्या इससे पूर्व शून्य था? इसका उत्तर वह नही दे सकता क्योंकि वह रहता है मात्र एक काल चक्र तक का, किन्तु पूरा नहीं।

हिमालय की तराई से चंबल नदी के किनारे तक फैला हुआ प्रदेश महाभारत काल में पांचाल प्रदेश कहलाता था। जिसकी राजधानी अहिछत्ऱ (इस समय के रामनगर के समीप है)थी, और द्रुपद वहां का शासक था। आज के इतिहासकार चाहे जो लिखे और कहे- यह वह जाने, किन्तु अपने पंचांगों और संकल्पों में पढ़े जाने वाले तिथि काल के आधार और दक्षिण में एहोले की पहेड़ी पर एक जैन मंदिर में जो शिलालेख मिला है, उसके भी आधार पर महाभारत के युद्ध को हुए 5090 वर्ष हो गये हैं। अब बताइयें इतने कालखण्ड में कितनी बार कई नगरियां- बसी-उजड़ी फिर बसी उजड़ी- यह क्रम प्रकृति नदी चलाती ही रहती है। इस परिपेक्ष्य में, आओ इस भूखंड को देखें, जहां आज का बरेली बसा हुआ है आज से पचास साठ वर्ष पूर्व क्या इसका स्वरूप ऐसा था जो आज है? उत्तर मिलेगा नहीं।

अंधविश्वास बुरा है- गति को रोकता है-प्रगति होने नहीं देता- यह सत्य है, किन्तु रेखा गणित (ज्योमेटर्ी) का आधार ही है मान लिया। सिद्ध करना तो फिर बाद की बात है। इसे मान कर ही तो आगे बढ़ा जा सकता है। इसी मानने के विश्वास को श्रद्धा दृढ़ करती है और यही जीवन है। आइये इसी विश्वास को लेकर इस क्षेत्र का अवलोकन करें- बहुत पीछे न जा कर सं0 1061 या सन् 1004 के कालखण्ड पर यदि हम दृष्टि डालें तो पता चलता है कि कठेरिया राजपूतों ने अहिक्षेत्र पर आक्रमण करके इसे अपने अधिकार में लिया था। कठेरिया राजाओं के समय बरेली क्षेत्र का नाम कठेरिया में कई उतार-चढ़ाव आये। इस क्षेत्र में 1385 से 1399 तक इस क्षेत्र पर मुसलामानों का अधिकार रहा, किन्तु 1399 मं पुनः कठेरिया राजपूतों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया। उन्हीं के वंशज राजा जगत सिंह ने अपने नाम से 1536 में जगतपुर की नींव डाली और जगतपुर आज भी पुराने शहर के एक मुहल्ले का नाम है। इसी पुराने शहर से आरम्भ करते है यात्रा।

मंदिर वन खंडीनाथः-

जैसा कि इसके नाम से पता चलता है-यहां किसी समय घना जंगल था। कहा जाता है इस स्थान पर पांचाली (द्रौपदी) ने शिव जी की पिंडी की स्थापना करवाई थी। शिव उपासना अनादि है भगवान राम ने भी लंका पर चढ़ाई से पूर्व शिव का पूजन किया था। शिव के उपासक अधिकतर नगरी से हट कर मंदिर निर्माण किया करते थे और उनके भक्त कहते भी हैः-

धन धन भोला नाथ तुम्हारे कौड़ी नहीं खजाने में

तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में।।

यह स्थान 1857 के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी दीवान शोभाराम की जन्म भूमि के निकट होने के कारण प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र भी रहा है। शोभाराम रूहेलखंड के नबाव खान बहादुर खान के दीवान थे। 1859 में जब अंगेजो ने दुबारा बरेली पर कब्जा कर लिया तो दीवान शोभाराम ओर नबाव साहब भाग कर नेपाल चले गये। किन्तु नेपाल सरकार ने दोनों को बन्दी बना कर अंग्रेजो को सौंप दिया। नबाव को तो पुरानी कोतवाली के सामने फांसी दे दी गई और दीवान शोभाराम को काला पानी भेज दिया गया। वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। अब इस मंदिर का स्वरूप श्रद्धालुओं ने बहुत निखार दिया है। शिवरात्रि और दशहरे को विशेष उत्सव होता हैं और श्रावण में दूर-दूर से भक्त आकर अर्चना पूजन करते हैं।

धोपेश्वरनाथः-

यह मंदिर छावनी (कैन्टूनमेन्ट) क्षेत्र में स्थित है। बहुत पुरातन और सिद्ध स्थान है यह भी। वास्तव में इसका नाम धूपेश्वरनाथ था। धूम्र ़ऋषि ने, जिनका वर्णन महाभारत में मिलता है। यहां पर तपस्या की थी। यहां उन्होंने समाधि भी ली थी। उसी समाधि पर ही शिवलिग की स्थापना बाद में कर दी गई। मंदिर के साथ लगा हुआ एक तालाब भी है जो पहले मात्र पोखर था। कहते है किसी मुसलमान नबाव ने इसकी पक्की सीढ़िया अपनी बेगम के कहने पर बनवाई थीं क्योंकि उनकी इस स्थान पर कोई मनोकामना पूर्ण हुई थी। वैसे तो वर्ष भर ही भक्तों का तांता लगा रहता है। श्रावण में तो नगर के बाहर से भी लोग यहां आकर अर्चन पूजन करते है। शिवरात्रि को विशेष उत्सव होता हैंै। यहां पर भादों में इस मंदिर के थोड़ी दूर राई सती का मेला लगता है और भादों के अंतिम दो वृहस्पतिवार को जिनके बच्चों को सूखे का रोग होता है- इस तालाब में लाकर नहलाते है ंजिससे वह रोग मुक्त हो जाते हैं। ऐसी 75 प्र्रतिशत मुस्लिम समुदाय के लोग अपने बच्चों को यहां लाते है। मंदिर के क्षेत्र में ही धोपेश्वर नाथ शिशु विद्यालय भी है। जब अंग्रेजों ने यहां छावनी बनाई थी तो इसकी सारी भूमि अपने अधिकार में ले ली थी अब मात्र 12बीघा भूमि ही इसका क्षेत्रफल है।

मंदिर मढ़ीनाथः-

यह मंदिर भी बरेली का प्राचीन शिव मंदिर है। इसी के नाम पर ही इस सारे क्षेत्र का नाम पड़ा हुआ है। यहां भी किसी समय सघन वन था। कब, किस समय, किस काल में यहां शिवलिंग की स्थापना हुई थी इतिहास मौन है। हां चार- पाॅंच सौ वर्ष हुये यहां एक परम संत दुग्धाहारी आये थे। उन्होंने अपने तप से इस क्षेत्र को आलोकित किया था। मंदिर के अन्दर कई समाधियां है। मंदिर के नाम काफी भूमि थी जो अब प्रश्न चिन्ह है मंदिर के समीप ही हनुमान गढ़ी है यह भी एक प्रसिद्ध स्थान है। यहां पर वसंत पंचमी शिवरात्रि और दशहरे का मेला बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। श्रावण में शिव अर्चना का महीना तो है ही।

अलखनाथः-

क्षेत्र का नाम भी इसी नाम से प्रसिद्ध है। यह पूर्वोत्तर रेलवे की छोटी लाइन और देवरनिया नदी के मध्य में स्थिति है। अलखिया बाबा यहां तप किया करते थे। उन्हीं के नाम से इस स्थान का नाम अलखनाथ मंदिर पड़ा। जिस वट वृक्ष के नीचे वह तप किया करते थे वहीं उनकी समाधि बनी और उसी के ऊपर शिवजी की पिंडी की स्थापना कर दी गई थी। यह स्थान इतना प्रसिद्ध है भारत के अन्य नगरों से भी श्रद्धालु यहां आते हैं शिवरात्रि और श्रावण मास में तो भक्तों की इतनी भीड़ होती है कि पुलिस को प्रबन्ध करना पड़ता है। श्रावण के अंतिम सोमवार को यहां भंडारा लगता है। वैसे भी यहां प्रतिदिन 50-60 मूतिंया भोजन करती है। शिवमंदिर के अतिरिक्त लक्ष्मी-नारायण, रामलक्ष्मण-जानकी और राधाकृष्ण की जुगलजोड़ी और हनुमान जी का विग्रह भी है- भगवती का मंदिर भी परिसर में ही है। यहां श्रद्धालु अपने बच्चों के मुडन करवाने आते हैं। इसके चारों ओर खेत और अमरूदों की बगियां है। मानों कुछ क्षणों को प्रकृति की गोद में हम यहां आ गये हों ऐसा है।

मंदिर टीवरीनाथः-

टिवरी अपभ्रंश है त्रिवटी का, तीन बटवृक्ष एकसाथ ही यहां पर है और शिवलिंग उनके मूल में है। कभी यहां भी सघन वन थाा। कहते हैं एकबार एक चरवाहा अपने पशु चरवाता हुआ इस स्थान पर आया थ-इस त्रिवटी की छाया में विश्राम करने हेतू लेट गया। गर्मी के दिन थे, लेटते ही नींद आ गई। इसी अवस्था में उसे आभास हुआ- कोई कह रहा है उठ-उठ देख क्या है? वह उठा क्या देखता है। धरती से शिवलिंग प्रकट हो रहा है। चर्चा चारों ओर फैल गई और धीरे धीरे लोग उस दिव्य शिवलिंग के दर्शनों को उमड़ पडे जिसने जो चाहा उसका मनोरथ सिद्ध हुआ। श्रद्धा फलीभूत होती है। सं0 1474 में इस स्थान की महती मान्यता थी। उसी काल में रामानन्द सम्प्रदाय के किसी संत ने यहां आकर अपने इष्ट भगवान राम लक्ष्मण- जानकी के विग्रहों को प्रतिष्ठित किया। हनुमान जी का विग्रह भी तभी का है।

यह स्थान भी वनखंडी नाथ के मंदिर की भांति 1857 में क्रान्तिकारों की शरणस्थली रहा है। कहते है इस मंदिर के पास 22 गांव थे और रामानन्द सम्प्रदाय की प्रथा के अनुसार यहां नित्य सदाव्रत (लंगर) लगता था। साधु संत और जो कोई भी उस समय आ जाता था उसे बिना किसी भेदभाव के भेाजन मिलता। किन्तु अब यह प्रथा खत्म हो गई है। क्योंकि उसी क्रान्ति के समय पर यहां के महन्त की हत्या कर दी गई फिर कालांतर में 1917 में यहां के नागरिकों ने एक कमेटी का गठन किया जिसका अध्यक्ष महन्त का उत्तराधिकारी ही रहता था। तभी से यह रजिस्टर्ड संस्था अपना कार्य कर रही है। किन्तु अब महंती भी समाप्त कर दी गई है । इस श्री राममदिर का जीर्णोद्धार 1945 से आरम्भ होकर 1948 तक चला। फिर 1980 में प्रारम्भ हुआ जो 1981 में पूर्ण हुआ। अब इस भव्य मंदिर में श्री गणेश जी, राधाकृष्ण, लक्ष्मी नारायण और राम लक्ष्मण जानकी जी के दिव्य एवं विशाल विग्रहों के दर्शन होते हैं। इस मंदिर के आसपास की बहुत भूमि भी इसके नाम थी जिसमें से कुछ बरेली विकास प्राधिकरण ने अर्जित कर एक कालोनी बना दी है फिर भी जो शेष बची है उसमें वह कमेटी बहुत ही रचनात्क कार्य कर रही है 1986 में एक विशाल श्री राम कथा स्थल का निर्माण किया है जो नगर में सबसे बड़ा है। विवाह घर की भी योजना है। कई दुकानों का भी निर्माण किया गया हे।

मंदिर तपेश्वरनाथः-

बरेली के पांच बहुत ही पुरातन शिव मंदिरों का संक्षिप्त इतिहास के इति श्री करने से पूर्व एक छटे शिव मंदिर तपेश्वर नाथ का वर्णन भी जरुरी है यह मंदिर भी ढाई-तीन सौ वर्ष पुराना है। इसका इतिहास मौन है। अब इसके निकट सुभाष नगर कालोनी बन गई है।

और अब आइये जरा ध्यान कर उस आशुतोष औघड़दान का कैसे है- दिव्य दर्शन उनके और हमेंवह क्या संदेश दे रहे हैं।

गंगधारा शीश परः- लोकपावनी धारा यह कह रही है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में विचारों की श्रृंख्ला सदैव पवित्र रहनी चाहिये तभी जन कल्याण हो सकता है।

कानों में विच्छूः- कटु से कटु बात सुनकर भी, लोक कल्याण हेतु व्यक्ति को शान्त रहना चाहिये।

तीसरा नेत्रः- काम का शमन ज्ञान से होता है, भोग से नहीं तीसरा नेत्र जग के अवलोकन हेतु नहीं आकांक्षाओं के दमन के लिये है।

चन्द्रमा:- दूज का चांद निष्कलंकता का प्रतीक है और शीतल मस्तिष्क ही मन को शान्त रख सकता है।

सर्प:- भयंकर से भयंकर और कठोर से कठोर परिस्थिति को भी अंगीकार करना और गे का हार बना लेने का प्रतीक है।

गरलः- कटुता को कण्ठ तक ही रखना हृदय और वाणी में नहीं उतारना चाहिये।

सवारी:- नन्दी धर्म का प्रतीक है, जो धर्मारूढ़ होता है वह ही लोक कल्याण मे समर्थ होता है।

और अब समग्र देश को इसी परिपेक्ष्य में जरा निहारे तो - देश का शासनाध्यक्ष शिव समान हो। मन्त्री - गणेश सा- बड़ा मस्तिष्क, बुद्धिमान चतुर चिन्तक, लम्बे कान-सुनने की अधिक शक्ति, सूंड़ - हर कार्य में दोनों पक्षों को विचार कर फूंक-फूंक कर कदम रखने वाला, लम्बोदर- हरप्रकार की शक्तियों को संग्रह करने वाला।

सेनापति- षडानन कार्तिकेय- जैसा मोर वाहक, पूरब, पश्चिम , उत्तर दक्षिण, सागर की गहराइयों से नभ की ऊंचाइयों तक की षट-दिशाओं से देश की रक्षा करने वाला।

एक निष्कर्ष और- मानव जीवन, विसंगतियों, विरोधाभासों, विचारों की भिन्नता अनुकूलता- प्रतिकूलता का संगम हे। यह सब होते हुये भी शिवरात्रि का महापर्व जिसे आज मनाया जा रहा है, क्या हमें यह संदेश नहीं दे रहा- जैसे आज का दिन-

दिवस महा शिवरात्रि का

करता सम दिन रात!


हिन्दी दैनिक ‘‘आज‘‘ बरेली संस्करण, 23 फरवरी 1990, पृष्ठ-7