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श्रावणी: एक महापर्व (लेख)



       यों तो भारत की पुनीत भूमि त्यौहारों की अपनी सीधी सुगन्ध से आह्लादित करती ही रहती है। जन-जन को हर ऋतु में वर्ष भर। किन्तु श्रावण का महीना अपना एक विशिष्ट ही स्थान रखता है। ऊॅंची-ऊॅंची काली काली घटाओं से आछादित गगन, प्यासी धरती की प्यास बुझाती इन्द्रदेव की अनुकम्पा के कारण ही श्रावण में हरियाली तीज का  प्रकृति श्रृंगार करती है- वृक्षों पर झूले- झूलों पर कजरी के स्वर, साथ में हरी हरी चूड़ियों की खनक बन जाती है साज, हाथों में रंगीन मेंहदी बनाती चली जाती है मौसम की और भी रंगीन। वहीं विरह अग्नि में झुलसती विरहन को और भी तड़पाती है इसकी बौछारें और फिर इसी महीने की अन्तिम तिथि बन जाती है श्रावणी के महापर्व का दिवस।

 

          श्रावण चातुर्मास के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण महीना है। वैसे अतीत में चातुर्मास में सभी प्रकार की यात्राएं स्थगित हो जाया करती थी। जैसे वर यात्रा, तीर्थ यात्रा और विजय यात्रा। आज भी वर्षा ऋतु युद्ध विराम की ऋतु हैं तीर्थयात्रा के स्थगन पर, आप यह प्रश्न कर सकते है कि फिर कश्मीर में अमरनाथ की यात्रा क्यों थी। यह तीर्थ यात्रा बहुत पुरातन नहीं है। मुस्लिम काल में अमरनाथ की गुफा को एक मुसलमान गडरियों ने खोजा था और उसने अपने हिन्दू भाइयों को इस चमत्कारी गुफा की सूचना दी। इस गुफा में जो बर्फ का शिव लिंग बनता है उसका पूर्ण आकार श्रावण की पूर्णिमा को बनता है और फिर धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। इसीलिए इसका दर्शन अर्चन पूजन भी इसी दिन भक्त गण वहां जा कर करते है, क्योंकि इस गुफा की खोज एक मुसलमान गड़रियें ने की थी, इसीलिए अमरनाथ के चढ़ावे का एक तिहाई अंश उसी के परिवार को आज भी दिया जाता हे। चातुर्मास में क्योंकि सभी प्रकार की यात्राएं स्थगित कर दी जाती थी ओर अब भी हमारें संत महात्मा उसको निभा रहे है। श्रावण के आरंभ से ही नगर-नगर, गांव गांव जहां जहां से संत महात्मा विश्राम करते थे और करते हैं वहां वहां धार्मिक सत्संगों का आयोजन श्रद्धालुगण अब भी करते है।

 

श्रावणी पर्व क्या है?

     यदि हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पता चलता है कि हमारी परम्पराओं में सामाजिक जागरुकता और अपने-अपने कर्तव्यो ंके प्रति निष्ठावान बने रखने हेतु किस प्रकार इन त्यौहारो-पर्वो के सुदृढ़ दुर्ग की संरचना की थी। हमारे ऋषि मनियों और चिन्तकों ने, जिन्हें आज तक इतने युग बीत जानेपरभी कोई तोड़नहीं सका और इस काल खण्ड में भी जबकि पश्चिमी लोग बाद और भौतिकवाद का हमारी संस्कृति पर बड़ा भयंकर आक्रमण हो चुका है, सब मान्यताओं, मर्यादाओं और संस्कारों को अंधा-धुंध तिलांजलि दिये जा रहे है ये तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवि यह कह कर कि यह सब व्यर्थ है-ढोग है अधं विश्वास है। जरुरत है हम अपने पर्वो का अनुशीलन करें, तब हमें ज्ञात होगा कि उन्हें त्यागने में नहीं, अपितु इन्हें अपनाने में ही व्यक्ति और समष्टि का कल्याण है-हित है।

 

          श्रावणी - श्रावण महीने की पूर्णिमा को रक्षाबन्धन और यज्ञोपवीत के पूजन का दिवस है। रक्षाबन्धन का जो इतिहास हमें मिलता है उसके अनुसार ऋषि समस्त राजन्यों (राज से लेकर सैनिक तक) को कलावा बांध कर उन्हें देश, जाति पूरे समाज राष्ट्र और धर्मो रक्षति रक्षतः का प्रण दिलवाते थे और उसके उपरान्त भादों की कृष्ण पक्ष की पांचवी तिथि को जो ऋषि पंचमी कहलाती है, शासक वर्ग ऋषियों का पूजन कर उन्हें नित सतमार्ग पर राज और समाज को चलाते रहने हेतु उनसे प्रार्थना करते थे। इस प्रकार समाज की इस व्यवस्था से समाज का पतन नहीं हुआ करता था। कालांतर में यह प्रथा बहन-भाइयों के राखी बांधने में परिवर्तित हो गई यह स्नेह के कच्चे धागे कितने मधुर,कितने पवित्र और कितनी आत्मीयता के प्रतीक बने, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। किन्तु जिन स्नेह के कच्चे धागों ने बहन भाइयों को स्नेह पाश में बांध रखा था। अब वह उस कानून की तलवार को करते दीख रहे है जिनके अन्तर्गत पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति पर बराबर का अधिकार दे दिया है। इस कानून के कारण ही प्यार, नफरत में बदल गया है मुकदमें चल रहे है, जन्म मरण के नाते टूट रहे है।

 

          इसी श्रावणी के पर्व पर यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है। यह भी सूत के कच्चे धागे, का बना होता है। इन्हें धारण करने के पीछे भी एक पवित्र संकल्प है, गृहस्थ जीवन, समाज और राष्ट्र के लिए बहत ही लाभप्रद है। इसमें हर मानव पर जो तीन ऋण है उन्हें उतारने हेतु सदा प्रयन्तशील बनाये रखने वाला यह सचेतन है। ये तीन ऋण- देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। यदि हम इसे साम्प्रदायिकता की दृष्टि से देखें और इन तीनों ऋणों पर विचार करें, तो दीखेगा कि यदि इन पर आचरण किया जाय तो हमारा जीवन जो दुःखों की खाान बन गया है फिर से सुखमय हो जायेगा।

 

रुहेलखण्ड में कांवर की प्रथाः-

          इस प्रथा की पृष्ठभूमि में कहा जाता है कि यह श्रवण कुमार मातृ-पिता भक्ति की द्योतक है। बरेली के कांवरियें हरिद्वार से जल लेकर गोला गोकरण नाथ में जा कर चढ़ाते है। बरेली का कांवर यात्री सात जनपदों की यात्रा करके तब गोला में जा कर शिवलिंग पर जल चढ़ाता है। ये जनपद हैं- हरिद्वार बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली शाहजहांपुर और लखीमपुर खीरी। यह यात्रा होती है जो सद्भावना को जन्म देती है, आपस में प्रेम भाव को उत्पन्न करती है। हर-हर, बम-बम का जयकारा लगाती हुई कांवरियों की टोलियों की टोलियां जिस जिस मार्ग से गुजरती है, एकविचित्र समां बांधती हुई जाती है। आज के बढ़ते हुए राग द्वेष के युग मेंकुछ समय के लिए यह समां इस आध्यात्मिक दृष्टि से मानव को आत्मविभोर कर देता है।

 

प्रदोष - पूजन

          इस सारे महीने ही शिव पूजन का बहुत ही महत्व है। बरेली नगर के चारों ओर शिव मंदिरों में भक्तों की बड़ी भीड़ होती है। ओर हर रात्रि को श्रावण भर नगर में प्रदोष पूजन होते हैं इस नगर में पहले एक ही प्रदोष मंडल था। अब इस पूजन में लोगों की अभिरुचि अधिक हो जाने के कारण कई मंडल बन गये है। सबसे पुराना श्री धर्म सघ प्रदोषमंडल है जिसे आचार्य पं0 शिवदत्त जी शास्त्ऱी, स्व0 पं0 शिव कुमार जी उर्फ अन्नी महाराज और पं0 विश्वनाथ ही पुरोहित ने सन् 1950 में स्थापित किया था। कल्याणकारी शिव का पूजन बड़ी श्रद्धा और तन्मयता से ये मंडल करवाते है और इन जयकारों से सारा वायुमंडल गूंज उठता है। धर्म की जय हो, प्राणियों मे ंसद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो कितने श्रेष्ठतम है हमारे भारत के ये तीज त्योहार, जो अपने लिए नहीं सारे विश्व के कल्याण की कामना करते हैं।

 

 

अयनपरिवर्तन

          ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार वर्ष में दो अयन है। उत्तरायण और दक्षिणायन। उत्तरायणमकर संक्रांति से मिथुन संक्रांतितक रहता है और दक्षिणायन कर्क से धनु की संक्रान्ति तक। इसी महीने में कर्क की संक्रान्ति जाती है और अयन परिवर्तन भी हो जाता है इसके साथ ही ऋतु में भी परिवर्तन सूर्य का तेज तिल-तिल घटने लग जाता है। जैसे मकर संक्रांति पर सूर्य का तेज तिल तिल बढता है उसी प्रकार पर कर्क की संक्रांति से घटने लग जाता है।

 

श्रावण का भारतीय जीवन में महत्वः

          भारत क्योंकि कृषि प्रधान देश है ओर वर्षा ऋतु भी आरम्भ हो चुकी होती है, आषाढ़ में कृषक जुताई शुरु करते हैं ओर श्रावण में  धान की बोवाई इसलिए भी सावन भादों के महीने कृषक के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं कहावत भी हेै बिन भादों के बरसे ओर बिन माता के परसे भूख नहीं मिटती।

आयुर्वेदिक दृष्टि से -

          श्रावणी पर्व पर पंच गव्य का पान किया जाता है। पंच गव्य में गाय का दूध, गाय के दूध से बना दही, गाय का घी, गोमूत्र ताजा और गाय का ही ताजा गोबर लिया जाता है। इसकी विधि इस प्रकार से है। दूध, दही और घी को अलग मिला कर फिर गोमूत्र और गोबर को मिला कर एक कपड़े से छान कर तब घोल को दूध दही घी वाले घोल में मिला लीजिए। इस की मा़त्रा एक तोला ही होनी चाहिये। इसका सेवन श्रावणी से भादों की पूर्णिमा तक ही करना हेाता है। इसके पान करने से शरीर निरोग, तेज पुंज बन जाता है। यह पंच विकारों को नष्ट करता है।

          श्रवण नक्षत्र के नाम से जुड़ा श्रावण मास हमें यह संदेश देता है कि श्रवण(सुनना) अधिक, सुने हुए का चिन्तन-मनन करो और फिर उस पर आचरण भी करो। शिव सा अपने को बनाओं तभी घर से बाहर तक कल्याण होगा।

 

 

 

1- हिन्दी दैनिकआजबरेली सस्करण, 6 अगस्त 1990, पृष्ठ -7