हाॅं कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य का सृजन करने वाले को साहित्यकार कहा जाता है। जिसमें कवि, लेखक आदि सब आ जाते है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्यकार समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करता है। उसकी वाणी से निकला हुआ प्रत्येक शब्द, उसकी लेखनी द्वारा लिखा गया प्रत्येक अक्षर सर्वजन हिताय होता है। इसी लिए वह व्यक्ति जो साहित्य का सृष्टा होता है, वह समाज की दृष्टि में आदरणीय हो ही जाता है। ऐसे व्यक्ति का भला क्यों सम्मान नहीं होगा और कौन नहीं करेगा?
साहित्यकारों में कवि, जिसके विषय में ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के पाॅंचवें मन्त्र में जो कहा गया है- उसकी भाष्यकार ने व्याख्या इस प्रकार से की है ‘‘कविः क्रान्त दर्शनी भवित‘‘- जब स्वयं वेद में कवि की इस प्रकार से स्तुति की गई है तब साधारण सूझबूझ वाले व्यक्ति का हृदय प्रतिभाशाली कवि के सामने श्रद्धा से नतमस्तक क्यों नहीं हो जायेगा?
जैसे दीप-शिखा के अपने अन्तस से निकले हुए धूम्र की कालिमा, कोमलांगी अंगनाओं के हरिण शावक से चंचल कटाक्षों को और भी तीखा करने के उपयोग मेंआती है, वैसे ही साहित्यकार का सृजन - अहं तिल तिल जल कर आलोकित एवं सुशोभित करता है, समाज को, जाति को राष्ट््र को और विश्व को भी।
किन्तु जब दीप शिखा की कालिका अधिक बढ़ जाती है तो उसी दीप ज्योति का ही गला घोंट देती है। इसी प्रकार जब लेखक या कवि का सृजन-अहं मिथ्या अहं में परिणित हो जाता है, तो वह उसी का ही दमन करने लग जाता है। इस घुटन का गोष्ठियों या इस प्रकार की अन्य सभाओं में साहित्यकार के न चाहने पर भी प्रायः उसके द्वारा प्रदर्शन हो ही जाता है, जिससे स्वर्गिक सुख के स्थान पर गोष्ठी में विषमता सी वमन करने लगती है। तब कवि चिल्ला उठता है- यह क्या? क्यों ऐसा हो रहा है? इसी बौखलाहट के उन्माद में वह अपने साथियों पर प्रहार करने लग जाता है। यहां तक कि इस क्षेत्र में नव आगन्तुकों का परिहास उड़ाने से भी नहीं चूकता। वह भूल जाता है कि अपनी प्रारम्भिकता की,यों गोष्ठी को वाद-विवाद का अखााड़ा बना देता है। कवि का कटु भाव, मानवता का पथ-प्रदर्शक, सुकुमार गीतों का जनक बड़े बड़े उच्च आदर्शो केा प्रस्तुत करने वाला वनैले हिंसकों की भांति द्वेष की ज्वालामुखी का साकार रूप धारण कर लेता है।
इसका अर्थ यह नहीं कि गोष्ठियों में विचार-विमर्श वर्जित है। या ऐसा नहीं होना चाहिए। विचार-विमर्श में भी बडे़ ही सात्विकभाव छिपे है। अतएव कहा गया है कि ‘वादे वादे जायते तत्व बोधः‘ किन्तु केवल एक शर्त है कि विचारक सद्भावना युक्त हों, एक दूसरे सेभावों का आदान-प्रदान करें, एकदूसरे का समझें, समझायें, विचार-विमर्श ही एक ऐसा सूत्र है जिसके द्वारा अनेकता, एकता के बन्धन में बंध जाती है। इसके परम प्रमाण है हमारे षट् शास्त्र (दर्शन) जिनमें हर दर्शन की विचार-धारा की भिन्नता होती हुई भी विचारको ंने अपने विचार विनिमय की शक्ति से उनका एकीकरण कर दिया है।
लेकिन क्या होता है विचार-विनिमय के स्थान पर आलोचना। आलोचना ही नहीं, कटु आलोचना। यहीं तक ही नहीं, मन्द मुस्कानों की बिजलियां गिराते हुए व्यंग्यों के टैढे़-तिरछे, बांके प्रहार।
अब यह देखना है कि जो व्यक्ति आलोचना कर रहा है वह उसका अधिकारी भी है या नहीं? आलोचना का अधिकार केवल उसी व्यक्ति को है जिसका व्यक्तित्व पाण्डित्य का प्रतीक हो,जो निश्छल, निष्कपट, पक्षपात रहित तथा उदारहो ओर सबसे बढ़कर उसकी दृष्टि में विद्या और साहित्य शब्दोंका वास्तविक स्वरूप हो, जो साधक के भाव भाषा की हत्या न कर उसके स्वरूप को बिगाड़ें बिना आलोचना के साथ-साथ ऐसे सुझाव रखे, जिसकी उस रचना के रचयिता का हुदय स्वतः स्वीकार कर ले और उसके साथ ही अन्य श्रेाता गण भी उस सुझाव की प्रशंसा किये बिना न रह सके, यह सब कुछ दलबन्दी, गुटबन्दी की गुटरूगूॅं से ऊपर उठ कर ही सम्भव है। यह तभी सम्भव है जब आलोचक का प्रच्छन्न ध्येय भी अपने गुरुत्व का प्रदर्शन करना न हो, इससे साहित्य को साहित्यकार को, एक प्रकार का बल प्राप्त होगा।
हर किसी की आलोचना करने का अधिकार नहीं हो चाहिए और नही गोष्ठियों में किसी प्रकार की विषमता फैलाने का उपहास प्रद ढंग से खिल्ली उड़ाने, सस्ते विनोद का अड्डा बनाने का साहस ही करना चाहिए। (साहित्य गगोष्ठियां साधना का मन्दिर होती है) इससे किसी का हित नहीं, जिससे किसी का हित नहीं वह साहित्य कैसा? वे साहित्यकार कैसे? वह गोष्ठी असभ्य व्यक्तियों की गोष्ठी से भी निकृष्ट बन कर रह जायेगी। वे असभ्यकम से कम एक दूसरे की सुनते समझते तो है। हर स्थान की कुछ मर्यादाएं होती है, उनका उल्लंघन तो नहीं करते। वे नाम मात्र के साहित्यकार जो कुछ रचनाएं लिख कर समाज में किसी ढंग से अपनीप्रतिष्ठा बना कर शीशे के महल में बैठ कर दूसरों को पत्थर मारते है और कामना करते है अपने लिए सम्मान की। सम्मान किसी के करवाने से नहीं होता। सम्मान तो उस ज्योति का होता है जो एक लगन से अपने ही स्नेह में जल कर दूसरों को प्रकाशित करे। भले ही तमः प्रिय उलूकों को यह अच्छा न लगे, भले ही तफान उसे मिटाने को बढ़े। कालिदास, वाण भट्ट, अश्व्घोष, चन्दवरदाई, सूर, तुलसी, रहीम, रसखान, भूषण, बिहारी आदि अनेक विभूतियों के चरणों में आज यदि समस्त जन जन नतमस्तक है तो उनकी सत्य साधना के आगे ही तो, उनकी सच्चाई के आगे ही तो उन्हीं की अमर कृतियों के कारण ही तो हमारी संस्कृति जीवित है । उन्हीं की ज्योति से ही तो हमारे देश का ज्ञान प्रदीप विश्व को ज्योतित कर रहा है। किसी भी देश जाति की सभ्यता, संस्कृति तथा जीवन उसके साहित्यकारों की अमरता से ही नित्यता को प्राप्त होता है। इस तथ्य से कोई विमुख नहीं हा सकता।
मगर हमें यह सोचना है कि शताब्दियों की पराधीनता के पश्चात् जिस संक्रान्ति काल से आज यह देश गुजर रहा है उसमें क्या आधुनिक युग के साहित्यकार अपना कर्तव्य सभ्यता से निभा रहा हैं या नहीं? हम अपने पूर्वजों के संचित किये हुए धन पर कब तक जीवित रहेंगे? जिस प्रकार आजादी का बट-वृक्ष आजादी के दीवानों के नित्य बलिदानों से ही पल्लवित होता है। उसी भांति साहित्य भी साहित्यकार की अहंमन्यता के परित्याग और नित-नव नूतन साधना रूपी अमृत से ही समृद्ध होता है, होता रहेगा। यह बात भी विचारणीय है कि आज जो होना चाहिए वह हो भी रहा है या उसके विपरीत चालें चली जा रही है। क्या साहित्य के पवित्र में भी भ्रष्टाचार तो नहीं फैल रहा? क्योंकि देखा गया है कि जिस किसी देश का साहित्यकार जब कर्तव्य विमूढ़ हुआ तो वहां का साहित्य पतित हो गया। उसकाप्रभाव वहां के जन जीवन पर पड़ा। वह समाज, जाति, देश अधोगति को प्राप्त हो गया। उस खाई में गिर गया जहां से उसके लिए फिर निकलना असम्भव हो गया। केवल यहां की स्मृतियों को ही विश्व ने याद रखा जो अमर थी शेष सब नष्ट भ्रष्ट हो गया। उस देश का उस जाति का-
‘‘यूनान,मिस्र रोम सब मिट गये जहां से
बाकी मगर है अब तक नामों निशां हमारा।‘‘
इकबाल की इन पंक्तियों पर विचार करना होगा। साहित्यकार सोचंे अपनी अपनी बुद्धि से टटोले। अपने अपने को परखें, जिसससे राष्ट््िरय संस्कृति को सोमरस प्राप्त होता रहे, देश जाति को जीवन मिलता रहे। चाहे साहित्यकार को अपनी साधना के पथ में अपना सर्वस्व, यहां तक कि जीवन भी क्यों न न्यौछावर कर देना पडे़।
हिन्दी साप्ताहिक ‘सहयोगी‘, कानपुर, वर्ष-17,अंक-30, 5 अगस्त 1963, पृष्ठ 10 एवं 11