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होली तब और अब (लेख)



        भारत ही विश्व में एक देश है, जहां प्रकृति नटी केरंगमंच पर षट्-ऋतुयें अपना नृत्य दिखाती रहती है और इस नृत्य की भाव भंगिमाओं, मुद्राओं की अभिव्यक्ति कर रहे हैं यहां के पर्व, त्यौहार और रीति रिवाज, जो किसी एक व्यक्ति वर्ग, वर्ण या समुदाय का नहीं, वरन् समाज के कल्याण हेतु हैं।

 

होली में टेसू के फूलों का महत्व

          वही ढाक के तीन पात वाले सलाश को जिसे ज्ञात था कि दृष्टा की श्रेष्ठतम रचना मानव को शीतकाल की परिसमाप्ति के पश्चात किन किन व्याधियों से जूझना पड़ेगा, इसलिए उसने, उनसे रक्षा हेतु अपने मंद सुगंधितसुमन (फूलों) को अर्पित कर दिया बतन भिगोने, रुग्ण हुई मनुज की त्वचा को रोग मुक्त करने ेहेतु। उतरवा दिए सबके ऊत कवच जो पहने हुए थे हिमदानव  से रक्षा हेतु लोगों ने गुलाबी ऊषणता के जाने पर। हवायें अबीर गुलाल को गले लगा कर झूमने लगीं, कुसमा कर का प्रकृति के रंग मंच पर नृत्य शुरू होते ही। ऐसा प्रतीत होता चला रहा है यह खेल षट्ऋतुओं का नित्य निरन्तर इस पुनीत धरा पर।

 

कुछ इतिहास के पृष्ठों से-

          साक्षी है इतिहास के पृष्ठ कि कैसे जहां राजा रंग सब मिलजुल कर इस उत्सव को मनाया करते थे। उन पृष्ठों में से एकपृष्ठ परअंकित है एक प्रमुख नाम सम्राट हर्षवद्धैन का। जिसके समय में मदनोत्सव (होली) का वर्णन तो कवियो-साहित्यकारों ने बड़े ही रोचक ढंग और उन्मुक्त स्वर से किया है। उससे पूर्व ओर उसके पश्चात भी यह पर्व टेसू के फूलों के रंग से ओर गुलाल अबीर से ही खेल कर मनाया जाता रहा है किन्तु आज की भांति नहीं।

 

कथा प्रह्लाद की-

          वैसे तो प्रकृति इस ऋतु में फाग अनादिकाल से ही खेलती आई है किन्तु होलिका दहन का इतिहास कुछ इस प्रकार से है- युग चाहे सत युग,त्रेता या द्वापर हो, कलियुग की तो बात ही छोड़ये- जब भी समय की सत्ता ने स्वर्ण पर एकाधिकार कर लिया, स्वर्ण जो प्रतीक है किसी भी राष्ट्र के जन जन की समृद्धि का, तब सत्ताधारी में अंह की पराकष्ठा जाग उठती है और अधिनायकवाद का जन्म होता है, दैत्य वृत्ति जागृत हो उठती है उसमें। तब किसी को भी वह अपने समान नहीं समझता, यहां तक कि यदि उसका कोई अपना प्रिय से प्रिय जन भी उसकी राह में क्यों आए वह उसको पांव तले मसल डालता है और देखा भी गया है यह।

 

          साधारण आत्मबल वाला तो कोई व्यक्ति उसके सामने टिक ही नहीं सकता। इतिहास ऐसे बहुत से उदाहरणों से भरा पड़ा है। ऐसी ही एक था पुराणाों में मिलती है भक्त प्रह्लाद की। जिसके पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपु था। संस्कृत की वर्णमाला का प्रत्येक वर्ण सार्थक है। वर्ण ओर शब्द के बीच में तथा शब्द और वाक्यके बीच में वैज्ञानिक संबंध जो अर्थ और ध्वनि के साथ कार्य और कारण भाव दर्शाता है। इसी प्रकार हिरण्यकशिपु शब्द भी अपने में एक विशिष्ट अर्थ लिए हुए है। यहीं से आरम्भ होता है है होलिका दहन का त्यौहार। तब से यह वर्ष प्रतिवर्ष चैराहों पर होलिका दहन के रूप में मनाया जाता है।  जिससे सबको यह ज्ञात रहे कि अन्ततोगत्वा सत्य की ही विजय होती है। चाहे अन्यायी कितना ही शक्तिशाली प्रभावशाली क्यों हो - चाहे वह कितने ही हथकण्डे क्यों अपनाये।

होली भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से-

          मानवीय प्रकृतियां भिन्न भिन्न होने के कारण, इस महापर्व को सबने अपने अपने दृष्टिकोणों से निहारा है। सबने अपने अपने ढंग से इसका वर्णन किया है।

          श्रृंगारिक प्रवृति ने इसे मदनोत्सव के रूप में, सामाजिक चेतना ने इसे अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष में विजय के रूप  में, धार्मिक विचारधाराा ने सत्य की विजयधारा के रूप  में, श्रमजीवियों ने इसे अपने खून पसीने से सींची हई पकी फसल को देख कर उल्लास के रूप में।

होली मिलन की प्रथा-

     ईसके अतिरिक्त भी कुछ और भी है, जब हम अपने धार्मिक ग्रन्थें का गहन अध्ययन करते है तो अतीत में उस कालखण्ड की दण्ड प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है जो किसी अपराधी को उससे दंडित किया जाता था। जैसे आज कल तो कारावास है ऐसे ही उस इतिहास के पूर्व के समय में , बन्दीगृहो की अपेक्षा, ऐसे व्यक्तियों को जो समाज विरोधी या कोई अनैतिक कार्य करते थे, उन्हें दण्ड के रूप में नगर के बाहर एक अलग बस्ती में रहना पड़ता था। ऐसे व्यक्ति शूद्र कार्य करने हेतु अस्पर्शनीय हो जाते थे। जब भी उन्हें नगर में किसी कार्यवश आना पड़ता था तो बांस की खपच्चियां बजाते हुए उन्हें आना पड़ता था। यह आदेश उन्हें इस लिए था ताकि लोग इससे शिक्षा लें।

 

          आइये हम फिर अपने मूल विषय की ओर चलें- टेसू के फूलों के प्रभाव को लें, होलीे अवसर पर टेसू के फूलों को पानी में उबाल कर जिस रंग की प्राप्ति हुआ करती थी वह केवल सुगंधित ही होता था, इस प्रयोग से अर्थात इस रंग को खेलने से शीतकाल में गर्मवस्त्रों के सतत पहननेसे त्वचा पर जो खारिश आदि होने लग जाती है, टेसू के रंगीला सुगधित जल उसे दूर करता था। चेचक, खसरे जैसे रोगों को भी रोकता था और भी इसके द्वारा कई लाभ होते थे। आज इस त्यौहार को भयंकर, डरावना, घृणित बना कर रख दिया है। क्या से क्या हो गया है और हो रहा है इसका वर्णन करते दुःख होता है शर्म से सिर झुक जाता है- कहां वह मदनोत्सव और कहां आज की यह दारूण होली?

 

 

 

 

1- हिन्दी दैनिकअमर उजालाबरेली संस्करण, 26 मार्च 1994 पृष्ठ - 15