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रोजा- रमजान - ईद (लेख)


        व्रत - उपवास रोजा रखने की प्रथा विश्व के लगभग सभी देशों जातियों में पायी जाती है। धर्माचार्यो ने इसे जहां मन की शुद्धि और आत्मबल प्राप्त करने का सुगम साधन निरुपित किया है, वहीं शरीर चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इसे शरीर  को स्वस्थ रखने का अनमोल तरीका बताया है। आम तौर पर देखा गया है कि जिस दिन कोई व्यक्ति निष्ठापूर्वक उपवास रखता है, उस दिन उसकी मनःस्थिति अन्य दिनों के मुकाबले कुछ बदली हुई सी होती है। यह मनोस्थिति एक सूक्ष्म अनुभूति होती है। जिस दिन अन्न जल ग्रहण करके उपवास रखा जाता है उस दिन मन में उठने वाला यह विचार कि आज मेराउपवास है, उपवास रखनेवाले के भीतर एक व्रत, एक सकल्प, एक प्रतिज्ञा का बोध बनाए रखता है, जिससे उसकी चेतना एकाग्र तौर इच्छा शक्ति मजबूतहोती है पर कोई भीऐसा काम करने के लिये सतर्क रहता है, जिससे दिल पर बोझरू पड़े और उसे व्रत भंग की ग्लानि का सामना करना पडे़। उस दिन मन को शान्त रखने केलिये इष्ट का स्मरण बल प्रदान करता है।

          हिन्दुओं में आठ पहर के मध्य में केवल एक बार फलाहार के व्रत, नवरात्रों में सिफ दो लौंग खा कर जल ग्रहण करने के व्रत निर्जल व्रत आदि अनेक प्रकार के उपवासो का विधान है। इनमें चन्द्रमा को देखने के बाद ही नमक रहित भेाजन करने का चन्द्रायण व्रत बहु प्रचलित है। हिन्दुओं में हर महीने की कुछ तिथियां दिन उपवास के लिए निर्धारित है- पूर्णमासी,अमावस्या, एकादशी आदि तिथियां और बुध, शुक्र शनि को छोड़ कर सभी दिन व्रत रखने का विधान है।

          मुसलमानों ने वर्ष का एक पूरा महीना उपवास रखने का धार्मिक विधान है।यह रमजान है, जो हिजरी सन का नौवां महीना होता हे। शुरुआत में हजरत मोहम्मद साहब ने हर महीने तीन दिन उपवास रखने का आदेश दिया था। इन उपवासों को रोजे कहा जाता है। मगर प्रारम्भ में रोजों के लिये दिन मुकरर्र नहीं थे। प्रारम्भ में ही इनके लिये कोई अनिवार्यता थी। लेकिन सन् दो हिजरी में कुरआन शरीफ में रमजान महीने में रोजे रखने के आदेश उतरा।क्योंकि यह आदेश कुरआन में उतरा था। इसलिये इस महीने का सबसे पवित्र मान कर यह पूरा महीनां नेकियों ओर उपवास व्रतों का हो गया। इनमें ये इतनी छूट रखी गई कि जिन लोागों में रोजे सहन करने की शक्ति हो और फिर भी व्रत रखे, वे हर रोजे के बदले एक मोहताज (दीन दुखी) को खाना खिला दिया करें।

          कुरआन मजीर के सूरा उल बकर की 182वीं आयत केमूल का थोड़ा सा अंश देवनागरी लिपिकों में इस प्रकार है-‘‘ या अटयलुल लजीना आमन कतिबा अलैकुमुस्सियायकया कुतिबा अलल्लजीना मिन कबलेकुमुलअल्लकुम ततकून‘‘ आदि।

          सूरा अल बकर की 182 वीं आयत के आदि का हिन्दी अनुवाद मरकाजी मकतब इस्लामी, दिल्ली-6 द्वारा प्रकाशित सरूयद अबुल आला मौदरी के कुरआन मजीद के हिन्दी अनुवाद में ज्यों का त्यो उदधृत किया जा रहा है- ‘‘ ईमान वालो! तुम्हारे लिये व्रत (रोज) अनिवार्य कर दिये गये हैं, जिस प्रकार तुमसे पहले नबिदों के अनुयायियों के लिये अनिवार्य थे। इससे आशा है कि तुम में धर्म परायणता का गुण पेश होगा। ये कुछ निश्चित दिनों के व्रत(रोजे) है। यदि तुम में से कोई बीमार हो या यात्रा पर हो, तो दूसरे दिनों में उतनी में उन्हें पूरा कर लें ओर दिन लोगों को रोजे रखने का सामथ्र्य प्राप्त हो फिर रखें तो वे मुक्ति प्रदान दें। एक व्रत का प्रतिदान एक मोहताज को भोजन कराना है। ओर जो स्वेच्छा से कुछ अधिक भलाई करे, तो यह उसके लिये अच्छा है। परन्तु यदि तुम समझो तो तुम्हारे लिये अच्छा यही है कि तुम रोजा रखे।‘‘

          दूसरी आयत में रमजान महीने की महत्ता इस प्रकार बतायी गई है- ‘‘रमजान वह महीना है, जिसमें कुरआन उतारा गया, जो मानवों के लिये सर्वथा मार्ग दर्शक है और ऐसी स्पष्ट शिक्षाओं पर आधारित है जो सीधा मार्ग दिखानेवाली है। अतः अब से जो व्यक्ति इस महीने का पाये, उसके लिये अनिवार्य है कि इस पूरे महीने में रोजे रखे ओर जो कोई बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में रोजो की संख्या पूरी करे। अल्लाह तुम्हारे साथ नर्मी चाहता है। सख्ती करना नहीं चाहता। इसलिए यह तरीका तुम्हें बताया जा रहा है, ताकि तुम रोजों की संख्या पूरी कर सको और जिस सीधे मार्ग पर उल्लाह ने तुम्हें लगाया है उस पर अल्लाह की बड़ाई प्रदर्शित और स्वीकार करो तथा कृतज्ञ बनो।‘‘

          इन आयतों के यहां उल्लेख करने का अभिप्राय यह था कि हजरत मुहम्मद सल्ललाहो अलेहे वसल्लम की नुबुूब्बल से पहले भी जो नबीनरतुल पैगम्बर हुए है उन्होंने भी अनुयायियों से व्रत रोजे रखवाये थे। किन्तु उनमें और इसमें अन्तर है- तब ये रोजे किसी विशेष महीने और दिनों के लिये निर्धारित नहीं थे, लेकिन हजरत मोहम्मद ने विशेष महीने और दिनांे की अवधि निर्धारित कर दी।

          हिजरी सन पूरी तरह चन्द्रमा पर आधारित है। हिजरी सालहजरत मुहम्मद के मक्का छोड़कर मदीना जाने पर शुरु हुआ था। हिजरत का अर्थ ही देश छोड़ कर जाना है। हिजरी सन में 30 और उन्तीस दिनों के चन्द्र मास होते है। इस तरह पूरा साल 355 दिनों का होता है। चांद दिखाई देने के अगले दिन से नया महीना शुरु होता है। यही कारण है कि रमजान महीने के बाद मनाया जाने वाला - रेाजे पूरी हो जाने की खुशी में ‘‘ईद उल फितर‘‘ का त्यौहार कहीं पहले दिन तो कहीं दूसरे दिन आता है।

          रोजों की अवधि ज्यो-त्यों पूरी होती जाती है, व्रत पूरा होने का एक उत्साह मन में भरता जाता है। अन्ततः वह दिन भी जाता है, जब आकाश पर लगी निगाहें चांद को देखने के लिये आतुर हो जाती है। चांद के दर्शन की लम्बी अवधि के पीछे छुपी उत्कण्ठा और आतुरता के बाद होने  वाली प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के लिये हीईद के चांदका मुहावरा बना हुआ है। इस छोटे से मुहावरे में भावों का सागर कर दिया गया है। प्यार, मोहब्बत, खलूत, भाई चारे और दिलों की निकटत का त्यौहार है - ईद-उल-फितर। तब, इसे मनाने में हर्ष उत्साह, मस्ती और हार्दिकता क्यों हो? इन्हें आपस में बांटने से सामाजिकता ही नहीं बढ़ती बल्कि सामाजिक एकता भी बढ़ती है।

         

         

 1- हिन्दी दैनिकअमर उजालाबरेली संस्करण दिनांक 24 अप्रैल 1990, पृष्ठ 4