जैसे-
वामन
संवत- 1,95,08,81,092 वर्ष
श्री राम संवत- 1,25,69,092 वर्ष
श्री कृष्ण संवत - 5, 217 वर्ष
बौद्ध संवत 2,566 वर्ष
(जैन) महावीर संवत - 2, 518
शंकराचार्य संवत- 2271 वर्ष और
विक्रम संवत जिसको शुरु हुये 2047 वर्ष व्यतीत हो गये है आज 2048 वां वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। इस काल गणना से हिन्दुओं की धार्मिक क्रियाओं में संकल्प विषयक अवधारणाा, जो अनादिकाल से हैं, इससे उसका बोध होता है जिन इतिहास के पृष्ठों को इसकी गवाही के लिये ढूंढा जाता है वे पृष्ठ तो कई बार जलाये गये और कई बार आक्रान्तओं ने उन पर अपनी मनचाही स्याही को पोता और वह स्याही आज भी हमारे देश को भ्रान्ति में डाले हुये है।
विक्रम संवत्-
भारत का यह सर्वमान्य संवत् उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य, जिन्हे शकारि भी कहा जाता है, उन्होंने आक्रान्ता शकों को परास्त कर ओर अन्य विजय यात्राओं के पश्चात शास्त्रों मे वर्णित विधि के अनुसार, देश की उस ऋणी प्रजा को जो साहूकारों के ऋण से दबे हुये थे- अपने राज कोष से भरपाई कर मुक्त करवा दिया- तब यह संवत् उन्होंने चलाया। एक जन श्रुति यह भी है कि जब ऋणियों को ऋण मुक्त करवा दिया गया तो पता लगाया गया कोई शेष तो नही रह गया। तो पता चला की एक अपंग अभी अमुक तेली का ऋणी है। उस समय सारा राजकोष रिक्त होचुका था- ऐसे में सम्राट ने उस तेली के कोल्हू मे जुत कर अपने श्रम से उस तेली का ऋण चुकाया। वह तिथि थी चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा। साथ ही यह भी कहा जाता है कि सम्राट का जन्म दिवस भी यही तिथि थी- किन्तु इसमें कितना सत्य है, कहा नहीं जा सकता। सबसे महत्वपूर्ण बात इस तिथि को इस संवत के प्रारम्भ करने की यह है कि उत्तरायन के नवरात्रों का शक्ति पूजन, ऋतु वसंत में प्रकृति का नव सृजन का यह दिवस है । हमारे यहां के महीनों के नाम किसी देवता या सम्राट के नाम पर न हो कर आकाशीय नक्षत्रों के नाम पर है- जैसे- चैत्र, वैशाख, जेठ असाढ आदि। भारत में विक्रम संवत के अतिरिक्त ओर भी संवत प्रचलित है, शाके, जिसे महाराजा शालिवाहन ने चलाया, यह भी चैत्र में ही शुरु होता है और दूसरा बंगला या फसली - जो वैसाख से।
शक सं0 1913
ब्ंागला या फसलीसंव0- 1398
ज्हां संवत सम्राटों द्वारा चलाये गये वहां अन्य संवत जो महापुरुषों के नाम से चले वे उन भक्तों और अनुयाइयों द्वारा चलाये गये थे।
अन्य देशों के सन् -
भारतके पश्चात, जिन अन्य अति पुरातन संस्कृतियों का उन सन् से बोध होता है वे हैं चीनी सन् और पारसी सन्।
चीनी सन् 9,60,02,209
पारसी सन् 1,89,959
इन दोनों देशों के सन् के बाद ओर भी देशों के सन् है जो वे भी काफी पुराने है-जैसे-
मिस्री सन् 26,645
तुर्की सन् 7598
इरानी सन् 5,994
यहूदीसन् 5,752
रोमन सन् 2742
ईसवी सन् 1991 और
ृ हिजरीसन् 1411 - इस समय किन्तु अगस्त से यह 1412 हो जायगा।
ईसवी सन का इतिहास-
इस सन् मूल स्रोत रोमन सन् है। जो ईसा से 750 वर्ष पूर्व प्रचलित था। तब इसमें केवल दस महीने ही होते थे और दिन 304। इसका प्रथम मास मार्च हुआ करता था। जो वसंत के आगमन का मास है किन्तु 700 ईस्वी पूर्व पोम्पिलिअस ने जनवरी, फरवरी के दो और मास जोड दिये। यह क्रम 414 ईसा पूर्व तक चलता रहा। फिर जनवरी को वर्ष का प्रथम मास माना जाने लगा। इस पर भी अव्यवस्था बनी रही रोम के प्रसिद्ध सम्राट जूलियन सीजर ने सौर व्यवस्था के संगत बैठाने हेतु इसमें 90 दिन ओर जोड़ने का आदेश दिया। उसने अपने जूलियन नाम पर एक महीना का नाम जुलाई भी रख दिया। इसके बाद सम्राट अगस्तस ने भी अपने नाम को अमर रखन के लिये एक महीने का नाम अगस्त रखा। अब वर्ष 365 दिन का हो गया। इस पर सुधार चलते रहे। 16 वीं शताब्दी के सौर और ईस्वी सन् में 11 दिन का अन्तर हो गया।
इस अन्तर को दूर करने हेतु 5 अक्टूबर 1582 का दिन 15 अक्टॅबर 1585 कर दिया गया, साथ ही फरवरी को इस वर्ष 4 से वह भाग हो जाए उसे 29 कर दिया गया। इसी को ग्रेगरियन कैलेंडर कहा जाने लगा। इसे फिर इंग्लैड, फ्रान्स और अन्य देशों ने स्वीकार कर लिया। इन संशोधनों के बावजूद अभी भी एक पलका अंतर पड़ जाता है। गतवर्ष 1990 की समाप्ति पर 31 दिसम्बर की आधी रात को परमाणु घड़ी को एक सैकेन्ड के लिये रोक दिया गया क्योंकि पृथ्वी की गति एक सैंकेंड अधिक हो गयी थी।
हिजरी सन्-
यह सन् मुस्लिम धर्म में प्रचलित है। 16 जुलाई 622 को मोहर्रम को पहली तारीख को हजरत मुहम्मद को मक्का से मदीना को हिजरत करनी पड़ी। हिजरत अर्थात् छोड़ना । उस स्मृति को बनाये रखने के लिए वर्ष का नाम हिजरी रख दिया गया और मोहर्रम की पहली तारीख से ही इस का शुरू माना गया। यह वर्ष पूर्णतः चन्द्रमा पर आधारित है। क्योंकि चन्द्रमा एक नक्षत्र का 2-1/4 दिन में एक चक्र लगाता है, इसलिये इससे कोई महीना 30 का कोई 29 का होता है इसी कारण वर्ष के 355 दिन होते है और मुसलमानों के त्यौहार भी आगे पीछे होते रहते है।।
भारतीय संवत् -
जिस ईस्वी सन् को कई बार परिमार्जित किया गया, वह भी 365 दिन का नहीं- वही भी 364 दिन/1/4 दिन का है। जिसे लीपवर्ष में फरवरी में एक दिन और बढ़ा कर 29 का बना कर वर्ष को 365दिन का बनाया जाता है अब भी। भारतीय सौर वर्ष 365 दिन का ही रहता है। सूर्य एक राशि की यात्रा एक माह में पूर्ण कर लेता है। अब प्रश्न उठता है सौर मास के साथ चन्द्र मास का प्रचलन क्यों? आकाशीय नक्षत्रों का मानव जीवन पर कितना प्रभाव पड़ता है, इसका हमारे पूर्वजों को पूर्ण ज्ञान था। वे न सिर्फ भौतिक विज्ञान के ज्ञाता थे अपितु आध्यात्मिक विद्या के भी तत्ववेत्ता थे। उन्होंने उस विराट पुरुष के दोनों नेत्रों सूर्य-चन्द्र का भी सूक्ष्म अध्ययन, अन्य नक्षत्रां के साथ किया था। तभी तो इस उक्ति का सृजन होगा- ‘‘चन्द्रमा मनसो जयते‘‘ चन्द्रमा का मन से सीधा सम्बन्ध है,इसकी चंचल घटती बढ़ती कलाओं का मन पर ही नहीं सागर की लहरों को भी विचलित करता है। मन को निर्मल रखने और संयम का पाठ पढ़ाने हेतु व्रत आदि और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों की क्रियाओं की विधि का प्रचलन किया। इसी लिये हमारे जितने भी अधिकतर व्रत, तीज त्यौहार और भी जीवन में कल्याकारी कृत है, वे चन्द्र मास की तिथियों के आधार पर ही होते हैं। इसी को दृष्टिगत रखते हुये चान्द्र मास को इतना महत्व दिया गया है सैार मास के साथ साथ और देशों में तो किसी ने सूर्य और किसी ने सिर्फ चन्द्र को ही महत्व दिया,इसीलिये उन लोगों का इस क्षेत्र का गणित अधूरा रहा और भारतीय समय की गणना का विधि विधान कल्प से लेकर संवत्सर, अयन, मास, ऋतु, पक्ष, तिथि और नक्षत्र विभाजित करके, काल की गति को जीवन धारा में जोड़ दिया।
चन्द्रमा चूंकि एक राशि की यात्रा 2-1/4दिन में पूर्ण करता है इसीलिये इस मास में 30 या 29 दिन और वर्ष 354 दिन का होता है। हर चोथे वर्ष में एक मास के द्वारा सौर चन्द्र मास के अन्तर को दूर कर दिया जाता है। इस वर्ष भी वैशास के मल्ल मास पड ़रहा है जो 14 अप्रैल से 14 मई 1991 तक का होगा।
मल्ल मास क्या है?:-
मल्ल मास सदा कार्तिक मास से पूर्व ही पड़ता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अमावस तक 30 दिन की अवधि में यदि सूर्य की संक्रान्ति न पड़े तो ये मल्ल मास नहीं माना जाता, इसे मल्ला कहा जायेगा ।
ऐसा कौन सा देश है जिसे अपने गौरवमयी स्वर्णिम अतीत पर गर्व नहीं होता- चाहे वह कैसी भी संस्कृति का क्यों न हो? अतीत की स्मृति को नित्य अक्षुण्ण रखनेे हेतु होता है अपने पर्व, तीज त्यौहारो को मनाने का उत्साह। अपने भारत के विगत काल खण्ड की ओर जब हम निहारते है तो जो कुछ भी उस क्षितिज पर हमें दृष्टिगोचर होता है, उसकी आज के वैज्ञानिक अनुसंधाान तो अब पुष्टि करने लग गये है- किन्तु मानसिक दासता में जकड़ी हुई वर्तमान पीढ़ी के हलक में अभी उतर नहीं रहा।
भारत भूमि उत्सवों, पर्वो-तीज त्यौहारों की भूमि है। इसी में एक उत्सव है काल गणना का। जिसे साधारण भाषा में संवत्सर का पूजन कहा जाता है। वैसे तो हर देश में अपने अपने वर्ष हैं किन्तु हमारे युगदृष्टा मनीषियों ने जिस प्रकार से अतीत काल के खण्डों में उसे विभाजित करके बांधा है, उस प्रकार से अन्यतर कहीं नहीं मिलता, हां शेष विश्व ने उसका अनुसरण अवश्य किया हे।
हर मानव में धार्मिक प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये-हिन्दुओं के तत्वदर्शी महापुरुषों ने इसे धार्मिक कृत्यों के सम्पादन में संकल्प कर्म का विधान किया, यहां उस संकल्प का कुछ अंश प्रस्तुत है।
संकल्प का अंशः-
‘ऊॅं‘‘ अद्यैतस्य ब्रह्मार्णो अर्हि द्वितीय-प्रहराद्र्धे श्री श्वेत वाराह कल्पे वैवस्तव मन्वन्तरे अष्टाविंश्ज्ञतित मे कलियुगे, कलि प्रथम चरणे जम्बू द्वीपे भारत खण्डे, भारतवर्षे आर्यवर्तक देशे पुण्य क्षेत्रे अमुक संवत्सरे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक योगे इत्यादि - ज्योतिष के प्रमाणित ग्रंथ सूर्य सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि का एक चक्र जिसे कल्प भी कहा जाता है उसकी कुल आयु 4,32,00,00,000 वर्ष मानी गयी है। इस सृष्टि को आरम्भ हुये अर्थात् सृष्टि से, 1,96,58,85,092 वर्ष बीत चुके है। जिसे आज के वैज्ञानिक भी मानते है।
एक कल्प में चार युगः सत्युग- 17,28,000 वर्ष, त्रेता युग-12,96,000 वर्ष, द्वापर यग- 8,64,000 वर्ष और कलियुग -4,32,000 वर्ष का होता है।
कलियुग का आरम्भ युधिष्ठिर संवत से माना जाता है जिसे 5092 वर्ष हो गये हैं। इसके अतिरिक्त हमारे शास्त्रों में और संवत्सरों का भी उल्लेख है। े
1- हिन्दी दैनिक ‘आज‘ बरेली संस्करण, 17 मार्च 1991, पृष्ठ- 5