मानव भाव जगत का निवासी है इसीलिये भाव प्रधान है। इस के अन्तःपुर में सूक्ष्मतम अनुभूतियां चेतन ओर अचेतन के साथ क्रीड़ा करती रहती है, जैसे जिसके भाव होते है- उसी प्रकार के उसके विचार बन जाते हैं। उन विचारों को व्यक्त करने का नाम ही अभिव्यक्ति हे। यह अभिव्यक्ति दोप्रकार से होती है एक वाणाी द्वारा दूसरी संकेतों से। वाणाी का जो स्वरूप हमारे सामने आता है उसको हमारे मनीषियों ने बड़ी ही दिव्य दृष्टि से निहार कर उसको चार भागों में विभक्त किया है। यह है परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी। भाव जब बैखरी का रूप धारण करता है तब किसी भी व्यक्ति की अव्यक्त भावना व्यक्त होती है। अब कुछ लोगों की यह जिज्ञासा होगी कि यह परा से बैखरी का शब्द जाल है क्या? इसका निराकरण कर देना भी उन लोगों की ज्ञान पिपासा को शान्ति करेगी जिनको इसकी प्यास हे। आइये, पहले जिज्ञासुओं को परा की ओर ले चलें। यह वाणी की वह स्थिति है जहां व्यक्त अव्यक्त (वैसे तो इसकी व्याख्या बहुत ही विस्तृत है किन्तु यहां बहुत थोड़े शब्दों सूत्रवत ही कहना हितकर होगा)। दूसरी स्थिति वाणी की है पश्यन्ती -यहां पर मानव का केवल मात्र अहं क्या है? इसे भी कुछ शब्दों द्वारा व्यक्त करना होगा, क्योंकि हो सकता है िकइस स्थान पर कुछ लोग उक्त -अहं- शब्द के कुछ और ही अर्थ लगा लें और अर्थ का अनर्थ हो। अहं अर्थात् अं से ह तक का सारा अक्षर जगत जिसमें हमस ब विचरण करते है। यह विषय भी विचित्र है यहां प्रत्येक बात रहस्यमयी सी है, थोड़ा थोड़ा रहस्य खोलना ही पडे़गा। जरा अक्षर को ही लीजिये, ध्वनि विस्फोट के समय जिसका हमें सर्वप्रथम दर्शन होता है या बोध होता है , जो चाहे समझ लीजिये, वह है अक्षर, अक्षर अर्थात् जिसका कभी क्षय हो। इसमें भी तीन श्रेणियां है- शुभ, अशुभ तथा दग्ध। यह एक बहुत ही सूक्ष्म तत्व की बात है जिसे आज के विज्ञान के सहारे बड़ी ही सरलता से सिद्ध किया जा सकता है। वैसे तो सर्वसाधारण भी थोड़ा सा प्रयत्न करने पर इसे भली प्रकार सेसमझ सकते है। शुभ अक्षर कौन से है और शेष कौन से है? इसको निम्न प्रकार से जाना जा सकता है-
शुभ- क,ख,ग,घ, च,छ, ज,द, थ, न श, स आदि
अशुभ - ड, ट, ठ, ण, त, ध, प, फ, ब, भ, म आदि
दग्ध - झ, ह, र, भ, ष ये पांच तो बहुत ही दूषित समझे जाते हैं।
भाषाशास्त्रियों ने कितने परिश्रम से इसकी खोज की होगी।
अब तीसरी सीढ़ी है मध्यमा की - इसमें मानव के मस्तिष्क में नाम और रूप स्पष्ट से आ जाता है, किन्तु वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जाता है। तत्पश्चात् वह स्थल आ पहुंचता है जहां शब्द स्थूल धारण करके हमारे मुख से निकल कर हम आप सबको अपने दर्शन देता है। यह बैखरी कहलाता है। जरा यह सोचने और विचार करने का विषय है कि कैसे यह शब्द हमारे सामने आता है और म यह दावा करत हैं हम बड़ी सुगमता से किसी के मन के भाव या भाषा द्वारा प्रस्तुत विचार को समझ लेते हैं। ऐसा व्यक्ति वास्तव में कोई बहत बड़ा सिद्धवैज्ञानिक है- जो इतनी सरलता से किसी के भाषा, भावों को समझ लेता है। ऐसा मैं मानता हूं।
अब वाणी के दूसरे पहलू की ओर चल कर देखिये। जिसे हम मौन की संज्ञा देते हैं। वहां कौन सा वातावरण है इसका भी अवलोकन करें। इसे संकेतों की नगरी कहते है। यहां हाव-भाव ही माध्यम होते हैं। इसलिये यह प्रायः बहुत ही घातक सिद्ध होते हैं। इनमें सबसे चंचल, चपल, शावकी, मीनाक्षी, नयन-कमलों की थिरकती, सरसती मध्यमा वाणी की भावाभिव्प्यक्ति को शायद बड़े से बड़ा संयमी, परम विवेकी महाज्ञानी, तत्वदर्शी, भाषाविज्ञ भी नहीं समझ पाता साधारण जन की तो बात ही क्या?
इस भावाभिव्यक्ति को व्यक्त करने हेतु बड़े बड़े दार्शनिकों कने दर्शन ग्रन्थों की रचना की, लेखकों ने निबंधों का सहारा लिया, कहानियां लिखी, इसी प्रकार से शिल्पीयों ने पत्थरों को यह स्वरूप प्रदान किया कि उसमें उसके द्वारा मात्र प्राण डालना ही शेष रह गया और कृतियाॅं आज भी बोल रही है जिन्हें विरले ही समझ सकते हैं।
अंत में मै अपनी बात कहने की धृष्टता कर रहा हूं , वैसे तो शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति में जो शब्द प्रयोग होते हैं उसमें भी प्रत्येक शब्द की अभिधा के साथ- साथ लक्षणा और व्यंजना के दो और रूप भी होते हैं। इस बात को थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भलीभांति समझताहै, जानता है। हो सकता है कि कुछेक को इसका बोध न हो िकवह अभिधा, लक्षणा और व्यंजना क्या बला है- जैसे बात में पात और पात में पात निकलते ही आते हैं। इस प्रस्तुत विषय में भी कुछ यही बात है। हाॅं तो अभिधा शब्द का सीधा साफ अर्थ, लक्षणा- जैसे चांद का मुखड़ा मुखाकृति के लक्षण की अभिव्यक्ति और व्यंजना अजी हम तो आपके दासनुदास है - क्या इस में कहने वाला दासों का दास हो गया। मात्र विनम्रता का प्रदर्शन करना होता हे। इस बात को प्रायः अनुभव करते हैं कि कुछ लोग यह सब जानते बूझते हुये भी भूल जाते हैं कि प्रत्येक शब्द की तीन स्थितियां है। शायद यही कारण है हम अक्सर दूसरे की भावनाओं को समझने में जो शीघ्रता बरतते हैं उसमें हम बहुत ही अन्याय कर बैठते है और मन चाहे अर्थ निकाल कर द्वन्दो, अफवाहों का स्वंय तो शिकार होते ही है, समाज के अंदर भी अशांति के विष को फैलाने वाले बन जाते हैं।
बडे़ बड़े महान ग्रंथों की व्याख्या, विवेचना, आलोचना करते समय हमारी दृष्टि में मात्र अभिधा का ही स्वरूप रहता है क्योंकि हम अपनी आंखों पर एक विशेष विचारधारा की ऐनक लगा कर उसका अवलोकन करते हैं। इस प्रकार से चल पड़ते है हम टिप्पणी करने, अपने महान ज्ञान का प्रदर्शन करने हेतु। यह भूल जाते है कि हम कहां पर, सागर के किनारे पर सीपियों को देख कर चिल्ला उठते हैं, अरे यहां तो सीपियां ही सीपियां है। कहां हैं इसमें रत्न? रत्नों की प्राप्ति हेतु तो - ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ‘ इस अमरवाणी को जीवन में उतारना होगा तभी हम उस भावाभिव्यक्ति के दर्शन कर सकेंगे जिसका कुछ वर्णन उपर्युक्त शब्दों में किया है अपनी इस अल्प ज्ञानानुभूति से।
1- सहकारी युग, हिन्दी साप्ताहिक, रामपुर 28 मई 1983, पृष्ठ-5
2- मनीषा - वार्षिक पत्रिका, रजत जयन्ती वर्ष 1995, राजेन्द्र प्रसाद स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मीारगंज, बरेली में पुनप्र्रकाशित।