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आज हमें मन के मैल को धोना है (लेख)


   बैसाखी और जलयान वाला नाग, पृथ्वी, जल, अग्नि वायु और आकाश इन पंच तत्वों से बने मानव शरीर में पृथ्वी तत्व का अंश अधिक होने के कारण,यह मानव जिस वस्तु को भी धारण करेगा, वह मैली हो जायगी, गंदी पड़ जाती है। तन के कपड़े धोने पड़ते है जब वे मैले हो जाते है तन को वस्त्रों की तरह ही मन की चादरभी मैली होतीहै, जिसकी ओर हम कभी ध्यान नहीं देते, मन का यही मैल नाना प्रकार की बुराईयों को जन्म देता है, प्रदूषण फैलाता है। सारा वातावरण ही विषाक्त हो जाता है, इसे कौन धोबी धोये? क्या कोई साधारण व्यक्ति यह कार्य कर सकता है? नहीं, इसे तो कोई सच्च संत ही धोता है। बहुत दिनों से मोगा के मन की चादर मैली हो चुकी थी। 1526 में पंजाब में संत पुरुष ने जन्म लिया। लोगों के मन की चादर धोने का कार्य जिन्होंने शुरू किया। वे थे बाबा नानक 25 वर्ष तक भारत ही नहीं अन्य देशों में भी आप गये। उन्हीं दिनों तैमर के वशज बाबर ने भारत पर आक्रमण कर दिया था, पंजाब में उसके पांव जम चुके थे। सं0 1575 में बाबर के सैनिकों ने बाबा नानक को बन्दी बना लिया और श्रम हेतु उनसे चक्की पीसने को दी। उन पर बिठाये गये पहरेदारों ने क्या देखा कि बाबा जी तो ध्यान मग्न है और चक्की स्वयं ही चल रही है, यह समाचार देख पहरेदार भागे आये बाबर के पास गये। इस दृश्य का वर्णन किया, बाबर ने खुद आकर भी यही देखा, जो कहा गया था तो चमत्कार को नमस्कार किया उसने बहुत प्रभावित हुआ बन्धन मुक्त कर दिया बाबा को और जाम पेश किया उस समय जो सत्गुरू जी ने उत्तर दिया वह इतिहास के पृष्ठों पर इस प्रकार से अंकित है-

 

          दोहा- ऐसे मद को क्या पिऊ जो उतर जाए परभात।

               नाम खुमारी नानकाचढ़ी रहे दिन रात।।

गंगा गंगोत्री से निकल कर वही रुक ही नहीं गई वह तो पापियों के पाप धोने हेतु भगवान विष्णु के चरणों से निकली थी। आगे बढ़ती गई ऐसे ही बाबा जी का मिशन भी आगे बढ़ने लगा।

 

          इक  चांद डूबा जाए। फिर भी  बन्दे।।

          समाज में फैले अंधकार को दूर करने के लिए एक चांद दूसरा दीप जलने लगा।

          हमारे पौराणिक ग्रंथों में इस प्रकार की बहुत सी कथायें मिलती है जब राक्षसों ने ऋषियों के तप में बाधायें डाली यज्ञ विध्वंस किए, उन्हें कई प्रकार से उत्पीड़ित किया, ऐसे ही पांचवी परम ज्योति गुरू अर्जुन देव जी की भी तरह तरह की यातनाये ंदी गई, उनको इस पावन उद्देश्य के मार्ग से हटाने के लिए लोहे के गर्म तवे पर बिठा कर ऊपर से गर्म गर्म रेत भी डाली गयी। उनके ज्योति लोक में समा जाने के बाद, इस गद्दी पर आसीन हुये छठे गुरु हरगोविन्द जी। उन्होंने हरमंदिर साहब में अकाल तख्त बनवाया, वहीं उन्होंने भौरी पीरी की दो तलवारों को धारण किया। गुरु के शिष्यों पर मुगलों का कोप प्रतिदिन बढ़ रहा था इसीलिए उन्हेंाने अपने सब शिष्यो को भी किरपान रखने की आज्ञा दी मर्यादा ओर पवित्रता को ध्यान में रखते हुये अमृतसर को सुरक्षित रखने हेतु लोहगढ़ का किला भी बनवाया यही से उन्होंने अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध अपना संघर्ष जारी कया, नवे गुरु तेज बहादुर जी को अपने देश धर्म जाति की रक्षा हेतु दिल्ली के चांदनी चैक में अपना शीश कटवाना पड़ा। इसके बाद अब दसवें गुरु गोविन्द राय जी गद्दी पर बैठे, तो उन्होंने शतचण्डी यज्ञ के पश्चात आनन्दपुर में अपने अनुयाइयों की एक विशाल सभा का आयोजन किया सभा स्थल के मंच के पास एक बड़ा तम्बू भी लगवाया तब आह्वा किया पांच व्यक्तियों को धर्म  की रक्षा के लिए अपनी-अपनी बलि देने को विभिन्न वर्ण,जाति और प्रदेश से आये पांच व्यक्ति इस कार्य के लिए गुरु जी के पास आकर खड़े हो गये एक-एक करके गुरु जी उन पांचों को तम्बू में ले गये और हर बार खून की धारा बाहर निकली। सारी संगत यह दृश्य देख रही थी, इस तम्बू में वास्तव में वहां पहले ही से पांच बकरे का किया जा रहा था। इस क्रिया से गुरु जी का अपने शिष्यों की परीक्षा लेना ही अभीष्ट था। उन पांचों को तम्बू से बाहर निकाला गया, फिर लोहे के एक कटोड़ें मे जल अभिमंत्रित कर उन पांचों का ेपिलाया गया, उन्हं पंच प्यारे शब्द से पुकार कर उनके नाम के साथ सिंह लगा दिया गया। तत्पश्चात उन पंाचों के हाथ से स्वयं भी अमृत छका ओर अपने नाम के साथ भी सिंह जोड़ दिया, गोविन्दराम से गोविन्द सिंह बन गये- इस तरह से संत से सिपाही बन गये आ।

 

          यही वह मेष की संक्रांति सं0 1756 (13 अप्रैल 1699) की थी जब इस पाव दिवस पर गुरु जी ने खालसा पंथ को सजाया था उन्हेांने सिखी के लिए कुछ सिद्धान्त भी बनाये:-

 

              गुरु पर जन्में तुम्हारेहोए।पिछले जाति धर्म सब खोए।।

              चार वरन के राको भाई धर्म खालसा  पदवी पाई।।

              हिन्दू तुर्क से भाई निसारा। सिखधर्म अब तुमने धारा।।

              राखहू कच्छ केश किरपाना। सिंह नाम को यही निशाना।।

 

          मेष संक्रान्ति से आरम्भ हुआ यह पंथ नानकपंथी से खालसा पंथ बन गया जिसे आज 292 वर्ष हो गये है। बैसाखी का पर्व भी इसी स्मृति में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

 

जलियांवाला काण्ड-

          समय पड़ने पर दिकुये गये आश्वासन को जब कोई समय निकल जाने पर उसकी पूर्ति नहीं करता, तब जिससे वह वायदे किये जाते है, उनके मन में आक्रोश का पैदा होना स्वभाविक ही होता है। विश्व के प्रथम युद्ध के दौरान ऐसे ही ब्रिटिश सरकार ने भी भारतीयों को कुछ वचन  दिये गये थे।,किन्तु युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों को मिला क्या? माण्टेग्यू चेम्स फोर्ट सुधार बिल उपहार में जिसके परिणाम  स्वरूप  देश में अंसतोष फैल गया एक और कांग्रेस द्वारा आन्दोलन तो दूसरी ओर क्रान्ति कारों की गतिविधियों में तेजी। इसके साथ ही हर प्रकार से क्रान्तिकारी का दमन और तुर्की के खलीफा की ओर से भारत के मुसलमानों को उत्तेजित करना, यह सब मिला कर, अं्रग्रेज सरकार बौखला उठी, उसने दमन चक्र चलाने हेतु रोलटएक्ट बनाया, इसके अन्तर्गत आन्दोलनकारियों को देखते ही गोली से उड़ा देने का भी प्राविधान था। इस एक्ट के विरूद्ध 6 अप्रल 1919 का देश व्यापी हड़ताल का आयोजन किया गया। अमृतसर (पंजाब) में हड़ताल पूर्व ही कांग्रेस के दो बड़े नेताओं डा0 सत्यपाल और डा0 किचलू को बन्दी बना लिया गया, इसने आग में घी का काम किया, अमृतसर निवासी उत्तेजित हो गये, इन दोनों नेताओं की रिहाई की मांग को लेकर एक बड़ा जुलूस डिप्टी कमिश्नर के कार्यालय की ओर गया। किन्तु सरकार ने उन्हें छोड़ने से मना कर दिया। फिर क्या था? शांतिप्रिय आन्दोलन हिंसक आन्दोलन में बदल गया। 10-12 अप्रैल को कुछ अंग्रेजों की भी हत्या कर दी गई। उस समय के राज्यपाल माइकल ने अमृतसर को मार्शल ला लगा कर शहर को सेना के हवाले कर दिया। 13 अप्रैल को बैशाखी का पर्व था, लोगों ने उस दिन जलियां- वाला बाग में इक्ट्ठे होकर इस दमन के विरूद्ध आवाज उठाने का निश्चय किया। सरकारी षडयंत्र के अन्तराल लोगों को उक्त बाग में बिना रोकटोक जाने दिया गया, जब लोग वहां हजारों की संख्या में पहुंच गये ओर अपने नेताओं के भाषण सुन रहे थे कि यकायक जनरल डायर वहां सेना की एक टुकड़ी लेकर पहुंच गया। जिन्होंने उस स्थान को देखा है वह जानते है कि वह स्थान चारों ओर से आवासीय भवनों से घिरा हुआ है। सिर्फ एक तंग सा मार्ग उसमें प्रवेश करने का है। यही डायर स्वयं खड़ा हो गया और बिना चेतावनी दिये ही गोली चलाने का आदेश दे दिया। सैकड़ों शहीद हो गये। उस बाग में एक बड़ा कुआं भी है लाशों से भर गया था। डायर के इस अति क्रूर कृत्य  ने सारे देश को झकझोर दिया, मृतक तनों में भी देश की आजादी के लिए तड़प पैदा कर दी, आन्दोलन हड़ताले, जन सभायें सारे देश में होनेे लगी। कुछ वर्षो बाद पंजाब के एक सपूत ऊधम सिंह ने ब्रिटिश की संसद में गोली से डायर को उडा कर जलियां वाला बाग के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि दी ओर मेष की की संक्रान्ति ने भी इस दिवस को अपने कालपत्र पर अंकित कर लिया।

 

 

हिन्दी दनिकविश्व मानव14  अप्रैल 1991, बरेली सस्करण, पृष्ठ -2