यूरोपीय सभ्यता संस्कृति के दीवाने मैकाले के मानस पुत्र तथाकथित बुद्धिजीवि, भारत के अतीत को मात्र इतिहास के पैमाने से नापते हैं। प्रश्न उठता है कि इतिहास है क्या? इतिहास, एक अधूरा मापदंड है किसी भी देश जाति की घटनाओं की व्याख्या करने का, जो एक सीमा तक ही माप सकता है, उसके पश्चात लक्ष्मण रेखा पार करने की उसमें क्षमता नहीं रही। फिर भी यह इतिहास लिख गया है और लिखा भी जा रहा है, वह कितना सच्चा और कितना पक्षपात रहित है, इसको भी हम आपस सब अच्छी प्रकार से जानते है। यहां एक और बात भी विचारणीय है कि किसी भी व्यक्ति को अपने वंश की कुछ भी पीढियों तक का ही ज्ञान होता है। क्या उससे पहले, हमारे आपके जिनके हम वंशज है, उनके भी पूर्वज वही थे? इतिहास की सीमाएं भी बस ऐसी ही है और जो उससे पहले के काल खण्ड पर डालती है वो है हमारी पौराणिक कथाएं।
पुराणों में 23 अवतारों का वर्णन मिलता है। उनमें से कुछ अवतार और कुछ अंशावतार है, पूर्ण अवतार जो प्रकट हो जिनका जन्म नहीं होता, जैसे नरसिंहावतार, रामावतार, कृष्णावतार आदि और अंशाावतार में दत्तात्रेय,कपिल, परशुराम आदि। आज जिस अंशाावतार की जयन्ती है- वे हैं भगवान परशुरामजी। संसार में किसी का नाम ‘राम‘ सर्वप्रथम-रेणुका और जमदग्नि के सबसे छोटे पुत्र का ही रखा गया था क्योंकि आप अपने पास सदैव फरसा रखते थे, इसीलिए आप परशुरामजी के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके जन्म की गाथा बड़ी विचित्र है।
पुरुरवा-वंश में जन्मे गाधि, एक बहुत प्रतापी राजा हुए है। उन्होंने अपने नाम से गाधिपुर जिसे आजकल गाजीपुर कहते है, बसाया था। उनकी एककन्ता सत्यवती, जो बहुत ही रुपवती थी,उसे भृगु वंशी ऋषि ने अपने लिए मांगा। गाधि ने ऋषि को अपने कन्या के योग्य न समझ कर एक शर्त लगा दी कि यदि आप एक हजार सफेद रंग के घोड़े जिनके एक -एक कान नीले वर्ण का हो, लाकर दो, तो वह अपनी कन्या का हाथ ऋचीक ऋषि को पकड़वा सकता है। गाधि नरेश ऋचीक की आत्मशक्ति को पहचान न पाया था,इसलिये उसने ऐसा कहा था। परन्तु मुनिवर ने एक हजार सफेद रंग के घोड़े जिनका एक - एक कान श्याम रंग का था गाधि को ला कर दे दिया। वचन मे बंधें नरेश ने अपनी परमसुन्दरी सत्यवती का विवाह ऋषि से कर दिया। एक बार महर्षि से उनकी पत्नी और सास ने अपने लिए श्रेष्ठतम पुत्र की प्राप्ति हेतु प्रार्थना की। जिसे उन्हेंाने स्वीकार कर लिया और दोनों के लिए अलग अलग यंत्रो से चरु पकाया और स्वयं स्नान को चले गये। मानव प्रकृति स्वभाव से ही सशंकित और ईर्ष्यालु भी होता है। सत्यवती की माता के मन में आया कि हो न हो ऋषि ने अपनी पत्नी के लिए श्रेष्ठ चरु पकाया हो - इस विचार के आते ही उसने अपनी पुत्री से, उसके भाग वाला चरु मांग कर स्वयं खा लिया और अपने वाला पुत्री को दे दिया। जिसे उसने खा लिया। जब ऋषि मुनि को इस बात का पता चला तो उन्होंने सत्यवती से कहा तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया। अब तुम्हारा पुत्र लोगों को दंड देने वाला ओर घोर प्रकृति का होगा और तुम्हारा भाई एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेता होगा। तब सत्यवती ने पति से अनुनय विनय कर उन्हें प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि ऐसा नहीं होना चाहिए। तब मुनि ने कहा कि अच्छी बात है, तुम्हारा पुत्र तो नहीं पौत्र वैसा ही होगा जैसे अभिमन्त्रित चरु का तुमने सेवन किया है।
आगे चलकर सत्यवती का पौत्र परशुराम जी और भाई विश्वामित्र हुए। परशुरामजी ने 21 बार क्षत्रियों का संहार किया और विश्वामित्र जी गायत्री के सृष्टा और ब्रह्म ऋषि बने।
सत्यवती जमदग्नि ऋषि की जननी बनी और उसकी माता विश्वामित्र की। रेणुका ऋषि की कन्या रेणुका से जमदग्नि का विवाह हुआ। वैसे तो रेणुका ने कई पुत्रों को जन्म दिया। भगवान के अंशावतार परशुराम जी ने उनके घर सबसे छोटे पुत्र के रूप में जन्म लिया।
हैध्यवंश के अधिपति अर्जुन ने उन्ही दिनों भगवान दत्तात्रेय जी को अपनी सेवा-सुश्रुवा से प्रसन्न होकर अपने लिए हजार भुजाये, कोई भी शत्रु उसके सामने टिक न सके, के वरदान प्राप्त कर लिए। इसके साथ ही अतुल शक्ति, सम्पत्ति, वीरता कीर्ति भी अपने लिए उनसे प्राप्त कर लिए। कहते है कि धन बल, जन बल, बाहुबल ज्ञान बल और तप बल आदि इनमें से कोई भी बल यदि कोई व्यक्ति प्राप्त करके उसे पचा न सके तो उसका भयंकर नशा उसके सिर पर चढ़ जाता है और वह व्यक्ति विध्वंसकारी हो जाता है संसार के लिए। यही दशा सहस्रबाहु-अर्जुन की हुई। दिशाएं उसके नाम से कांपने लगी। रावण जैसे योद्धा को भी उसने अपनी बगल में दबा लिया था और बन्दी बना कर घुड़शाल में रखा था। इसी नशें में चूर वह एक बार जमदग्नि ऋषि के आश्रम में भी जा पहुंचा। ऋषि के आश्रम में कामधेनू रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने हैध्यधिपति और उसकी सेना का अच्छी प्रकार से स्वागत सत्कार किया। यह देख कर सहस्रबाहु को मुनि के सामने अपना एैश्वर्य बहुत ही तुच्छ लगा। कामधेनु को ऋषि से बिना मांगे ही खोलकर वह अपने साथ ले गया। जिस समय यह घटना घटी उस समय जमदग्नि नन्दन परशुराम जी आश्रम में नहीं थे। उनके आश्रम लौट आने पर, जब उन्हें इस घटना चक्र का पता चला तो उसी समय अतिवेग से उन्हेंने सहस्रबाहु का पीछा किया। अभी वह अपनी राजधानी पहुंच भी न पाया था कि परशुराम जी ने उसे धर दबोचा। हैध्यधिपति और उसके शूरवीरों का वधकर कामधेनु को वापस आश्रम में लाकर पिता को सौंप दिया। इस युद्ध में सहस्रबाहु के पुत्र रण छोड़ कर भाग गये थे। जब ऋषि ने इतने बड़े नरसंहार का सुना तो उन्हें बहुत दुख हुआ। पश्चाताप हेतु एक वर्ष तक घोर तप करने का आदेश दिया। एक वर्ष तप करने के पश्चात वे आश्रम लौट आये।
इसी अवधि में परशुरामजी ने पितृ भक्ति का उदाहरण प्रस्तुत किया जो इससे पूर्व न कभी हुआ था ओर न ही आगे कभी होगा। परशुराम जी की माता रेणुका का प्रातः नदी से जल लेने गई, वहां पहुंच कर नदी के तट पर वह क्या देखती है कि गंधर्व राज चित्ररथ अप्सराओं के साथ जल विहार कर रहे है। इस विमोहक दृश्य को देख कर वह इतनी निमग्न हो गई कि उन्हें यह भी सुध न रही कि वह जल लेने आई हैं जब उन्हें चेत हुआ तो दोपहर हो चुकी थी। शीघ्रता से वह घट उठा आश्रम पहुंची पति को देरी का कारण बता दिया। जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका के इस मानसिक पाप से अति क्रोधित हो गये। उन्होंने अपने पुत्रो को अपनी माता का वध करने को कहा, किन्तु किसी में भी ऐसा करने का साहस न हुआ। तब उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुरामजी से कहा। परशुराम जी जो श्रीहरि के अंशावतार थे अपने पिता की योग शक्ति और तपोबल को अच्छी प्रकार से जानते थे। उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन करने को माता और भाईयों का वध कर दिया। पिता ने पुत्र की पितृ भक्ति से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा- परशुराम जी ने अपनी माता और भाईयों को पुनर्जीवित करने के लिए वर मांगा और साथ ही यह भी जिनका उन्हेंाने वध किया था उन्हें यह तनिक भी भान न हो कि मैंने उनका वध किया था। ऋषि ने तथास्तु कहा और वे सब पुनः जीवित होकर उठ खडे़ हुए मानों वे अभी सोकर उठे हो।
इधर एक दिन सहस्रबाहु के पुत्रों ने जमदग्नि ऋषि पर उस समय आक्रमण किया जब वे ध्यानावस्था में थे और परशुराम जी भी अभी कुछ दूर ही गये थे। उन्होंने महर्षि का वध कर दिया। माता रेणुका विलाप करती हुई, हे राम हेराम जोर जोर से पुकारने लगी। पुत्र मां की करुणा भरी आवाज सुनकर शीघ्र आश्रम में आये। पिता के वध का सारा वृतान्त मां से सुना- तो अभिमन्त्रित चरु के प्रभाव ने अब की भयंकर रूप धारण कर लिया। इसके पश्चात जहां कहीं भी ऐसा दुष्ट प्रकृति के क्षत्रिय मिले उन्होंने उनका संहार करना आरम्भ कर दिया। यह क्रम 21 बार भगवान के पूर्ण अवतार रामावतार तक रहा।
इस पौराणिक कथा पर यदि हम जरा भी ध्यान से विचार करें तो ज्ञात हो कि तब हमारे यहां का चिकित्सा शल्य विज्ञान, औषधि विज्ञान,योगिक शक्तियां अध्यात्मिक बल और भौतिक विज्ञान किस चरम सीमा तक पहुंच चुका था। अब तो यूरोपीय वैज्ञानिक भी इस सृष्टि की वहीं आयु मानने लगे है जो हमारे पूर्वज कहते चले आ रहे है कि सृष्टि की उत्पत्ति हुए 1,96,28,49,091 वर्ष हुये है।
यहां यह कहने का अभिप्राय कदाचित नहीं कि वर्तमान की उपेक्षा करो। किन्तु यह भी भयंकर भूल है कि वोटो और तुष्टिकरण की राजनीति में अपने गौरव मय अतीत को ओर गाथाओं को गड़रियों के गीत कह कर उसे नकारते ही रहे और अपने श्रेष्ठतम संस्कारों, संस्कृत का उपहास उड़ाये।
1- हिन्दी दैनिक ‘‘आज‘‘ बरेलीसंस्करण, 27 अप्रैल 1990, पृष्ठ - 6