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कविता पाठ या कलाबाजी (लेख)


 आज मंच पर कवयित्री जाते हुए डरती है क्योंकि आज का मंच, काव्यमंच के स्थान पर नौटंकी का रूप लेता जा रहा है। चुटकुले, हल्के स्वर की रचनाएं सुनाई जाती है, श्रोता ठहाके लगाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूॅ कि मंच केवल अखाड़ेबाजी की जगह है, कवियों की नहीं। जिस तरह मदारी डमरू बजाकर लोगों की भीड़ इकट्ठी कर लेता है उसी प्रकार ये चुटकुलेबाज कवि अपना मजमा जमाने में सफल हो जाते है।


        ऐसी दशा में कवयित्री क्या करे? कौन सुनेगा उसकी रचना। यदि वहभी उनकी तरह अपनी कलाबाजी दिखाती हुई कविता पाठ करती है तो जनता उसे पसन्द करती है।


        यह हमारे हिन्दी-मंच का दुर्भाग्य है कि यहां कवि को सम्मान के स्थान पर ‘हूटिंग‘ का शिकार होना पड़ता है। कवयित्री की स्थिति तो और भी खराब है। कुछ ‘ब्लेक मेलर‘ कवि उसे अनेक प्रोग्रामों का प्रलोभन देकर जाल में फंसा कर उसका जिस तरह शोषण करते है वह नारी केसम्मान के लिए लज्जाजनक बात है।



श्री रवि सारस्वत जी की यह अभिव्यक्ति ‘‘काव्य मंच और कवियित्रा‘‘ नामक परिचर्चा में साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 9-15 सितम्बर 1979, अंक में पृष्ठ - 29 पर प्रकाशित हुई थी जिसमें तत्कालीन अनेक कवियित्रों एवं कवियों के विचार भी प्रकाशित हुए थे यथा - सुश्री महादेवी वर्मा, डा0 हरिवंशराय बच्चन,श्री श्रीकान्त जोशी(खण्डवा) प्रकाश मिश्र (ग्वालियर) उमाकान्त मालवीय (इलाहाबाद), जगदीश सलिल, श्री कृष्ण कान्त खण्डेलवाल(संयोजक) डा0 रघुवीर प्रसाद पाण्डेय, गोपाल कृष्ण ओहरी, रामगोपाल शर्मा एवं मनोहर स्वरूप।