जटिल समस्या बन गया है पंजाब से भी अधिक कश्मीर आज क्यों? जबकि धारा 370 के अन्तर्गत कितनी सुविधाएं यहां के लोगों को मिली है, उतनी भारत के अन्य किसी प्रान्त को प्राप्त नही।
इससे पूर्व कि वर्तमान में कश्मीर की स्थिति के बारे में कुछ लिखा जाये, तनिक अतीत के पृष्ठों को हमें पढ़ना और उस पर बहुत ही गम्भीरता से विचार करना होगा। कबूतर के आंख मंूद लेने से बिल्ली, उसे जीवित तो नहीं छोड़ देती । आज कश्मीर की जटिल समस्या उसी नीति का परिणाम है।
जम्मू को छोड़कर कश्मीर घाटी में मुसलमानों की आबादी 90 प्रतिशत के करीब है। आइयें देखें 15 अगस्त 1947 से पूर्व और बाद के कश्मीर के हालात। समय था महाराजा हरिसिंह के शासन काल का और शेख अब्दुल्ला के आन्दोलनों का। शेख साहब एक कट्टरपंथी मुसलमान थे, जिन्हेंने रियासत में मुस्लिम कांफ्रेंस नाम की संस्था बना कर महाराज के विरूद्ध आन्दोलन चला रहे थे।
पंडित जवाहर लाल जी से उनकी भेंट हुई। पंडित जी ने शेख साहब के कान में यह मंत्र फूंका कि आप मुस्लिम शब्द के स्थान पर नेशनल का यदि प्रयोग करें तो भारतीय राष्ट््रीय कांग्रेस आपको पूरा समर्थन देगी। क्योंकि स्वयं पंडित जी भी किसी कारण वश महाराजा हरि सिंह से रूष्ट थे और यही हुआ भी। शेख साहब कश्मीर घाटी में बाहिनाल के इस पार तो राष्ट््रीयता का मुखौटा धारण कर लेते और उस पार अपने असली रूप में कार्य करते। जब पानी सिर से गुजरने लगा तो मौलाना आजाद और रफी अहमद किदवई जैसे राष्ट्र भक्तों ने पंडित जी को जो उस समय देश के प्रधाानमंत्री थे शेख की असली तस्वीर दिखाई तो दिल्ली दरबार की आंखे खुली और शेख साहब को गद्दी से उतार नजरबन्द कर दिया गया। यह घटना 1956 की है जिस व्यक्ति को राष्ट््रवादी बना कर पहले आसमान पर चढ़ाया गया हो उसी को देशद्रोह के इल्जाम में बन्दी बना दिया गया। यह बात मुसलमानों को बहुत खली। इस पर पाकिस्तान का जहरीला प्रचार, घाटी के कट्टरपंथियों के दिलों में भारत के विरूद्ध नफरत भरने लगा, यही से श्रीगणेश हुआ उसका जो आज हम देख रहे हैं। शेख साहब को नजरबन्द करने के बाद जितने मोहरे दिल्ली ने कश्मीर पर थेापे, उन सबने पाकिस्तान के लिए रास्ता साफ किया किन्तु भारत के पंथ में कांटे ही बोये। नजरबन्दी से उबे शेख अब्दुल्ला को सहसा एहसास हुआ कि पाकिस्तान में मेरी दाल नहीं गलेगी, भारत की धर्म निरपेक्षता में ही मेरा स्थान फिर भी सुरक्षित हो सकता है, यदि मैं फिर से राष्ट््रवाद का नकाब पहन कर दिल्ली दरबार में हाजिर हो जाऊ तो । और ऐसा ही हुआ, इन्दिरा गांधी ने जो उस समय भारत की प्रधानमंत्री थी, उन्होंने न सिर्फ शेख साहब को मुक्त कर दिया अपितु उन्हें फिर से कश्मीर का मुख्यमंत्री भी बना दिया। फिर अपने पुत्र फारूख अब्दुल्ला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। दामाद शाह गुल की निगाहें भी कश्मीर के सिंहासन पर थी।
साले बहनोई में पटका पटकी होने लगी। इधर पाकिस्तान ही नहीं, अरब देशों का पेट््रो डालर, ईरान का इस्लामी जनून भी सोने के जाम छलकाता हुआ, भोले भाले मासुम कश्मीरियों को बहकाया ही नहीं्र, उन्मुक्त दीवाना, पागल सा बना दिया। सब भूल गये भारत के अहसानों को धारा 370 के अन्तर्गत काफी सुविधाएं दी गई है उनको। उन्माद बढ़ता ही गया और विष बेल ने सारे कश्मीरी केसर को अपने में समेटी लिया।
यहां एक प्रश्न उठता है, क्या इस्लाम देश भक्ति नहीं सिखाता। मात्र मजहब पर फिदा होने की शिक्षा ही देता है? देशभक्ति का फरमाना भी हैं वहां तो फिर ऐसा क्यांे होता है? इसके दो कारण है- पहला भारत का पक्ष और विपक्ष दोनो ही सत्ता की भूख में राष्ट््रहित को तिलांजलि दे चुके हैं और तुष्टिकरण की राजनीति ही अपनाई है सबने। बात दसवीं ग्यारहवी शताब्दी की है। कश्मीर की रानी दिद्दा ने पति के जीवन काल में गुप्त और मरने के पश्चात खुले आम पर पुरुष रखे हुऐ थे।
यद्यपि वह एक वीरांगना और कुशल प्रशासनिक भी थी। उन्हीं दिनों कश्मीर पर आक्रमण हुआ। डाकू आक्रमणकारी नवयुवक योद्धा पर उसकी नजर पड़ी उसके रूप यौवन के सामने रानी ने आत्म समर्पण कर दिया। विधर्र्मी बन गयी प्रजा को बुरा लगा। उसने विद्रोह कर दिया। उस युवक ने जो अब रानी के तन मन का ही शासक नहीं था बल्कि सारे कश्मीर का बन गया था। नरसंहार का फरमान जारी करा। त्राहि मचा दी। प्लान हुआ जो विधर्मी बन जायगा। उसे क्षमा कर दिया जायगा। उस कामुक रानी दिद्दा के कर्मो का फल आज सारा कश्मीर भुगत रहा है। ऐसे ही हमारे नेताओं के सिर पर भी सत्ता की वासना का भूत सवार रहा है। देश विभाजित भी हो गया किन्तु तुष्टिकरण की नीति का त्याग न हो सका। भारत की जनता को भारतीय न बना सके। इस देश रूपी विराट पुरुष के रंगों में साम्प्रदायिकता का विष फैलता ही गया है। मुसलमानों का नेतृत्व दो श्रेणी के लोगों के हाथों में है एक तो कठमुल्लाओं के और दूसरा उन मुसलमान नेताओं के जिनको मुसलमानों के हितों की इतनी भी परवाह नहीं जितनी तस्करों को अपने देश से होती है। इससे बढकर और भी दुर्भाग्य की बात तो यह है मुसलमानों के किसी भी शिक्षा कद्र में मस्जिदों से लेकर आधुनिक शिक्षा पद्धति के विश्वविद्यालयों तक में भी देश भक्ति और विश्व बन्धुता का पाठ नहीं पढाया जाता । इसके विपरीत धार्मिक मदरसों में दूसरे धर्मो के लिये घृणा उत्पन्न करने वाली शिक्षा ही दी जाती है। यही नहीं उर्दू के अखबार में भी एक से एक बढ़कर अपने भाइयों के जज्बात से खिलवाड़ कर रहे हैं शायद ही कोई अखबार हो जो उन्हें राष्ट््रीय धारा में लाने का प्रयास करता हो। इसी मुस्लिम मानसिकता के कारण विश्व में जब भी कहीं ऐसा आन्दोलन हुआ जिससे इनके मजबूती जनून पर असर पड़ता हो तब उसका सबसे अधिक प्रभाव और प्रतिक्रिया भारतीय मुसलामनों पर हुई। इसका उदाहरण है खिलाफत आन्दोलन। तुर्की में जो कुछ हो रहा था इसका असर भारतीय मुसलमानों पर तुर्की के मुसलमानों से ज्यादा पड़ा जबकि अन्य अरब देशों ने तुर्की के इस आन्दोलन को जरा भी समर्थन नहीं दिया। यह तो अतीत की बात है इसके पश्चात भी जब इसी प्रकार की कहीं भी घटना घटती है भारतीय मुसलमान भड़क उठता है और अपना घर फूंकने लग जाता है यही नहीं खेल के मैदान में भी यदि पाकिस्तान जीतता है तो खुशियां मनाई जाती हैं और हारने पर गमी। कश्मीर भी इसी शिक्षा का शिकार हुआ है। जो आज मस्जिदों और वहा के मजहबी मदरसों में दी जा रही है। ये मदरसे ईरान और सउदी अरब ने जगह जगह इस्लामी शिक्षा हेतु खोले हुए हैं। यही नहीं राजमार्गो के महत्वपूर्ण स्थानों पर नकली मजार बना कर वहां पाकिस्तान से प्रशिक्षित जासूस बिठा रखे हैं जो समय पड़ने पर उसके काम आ सके। पाकिस्तान अब सीधे युद्ध करने से पूर्व इस सिद्धान्त को अपनाये हुए है कि किसी भी देश पर आक्रमण से पहले वहां कि सरकार के विरूद्ध ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दो कि वहां के लोग अपनी हकूमत के खिलाफ बगावत कर दें।
आपरेशन गुलमर्ग
अंग्रेज नहीं चाहते थे भारत को स्वतऩ्त्र करना, मजबूरियों ने उन्हें इसे स्वतऩ़़्त्र करना पड़ा, किन्तु जाने से पहले यह इसके टुकडे़ कर गये, पाकिस्तान को अपना अपरोक्ष रूप में उपनिवेश मानते थे। यह भी समझते थे यह नया देश उनके इशारों पर चलेगा। मुसलमान उनके इस उपकार के ऋणी रहेंगे। उन्हें वह मिल गया जो वे चाहते थे, इसके साथ ही अं्रग्रेजों को कश्मीर का भारत के साथ रहना पसंद न था। इसीलिये उन्हेांने देश के विभाजन से पूर्व ही जो योजना बनायी थी उसे पाकिस्तान के जन्म के मात्र पांच दिन पश्चात ही क्रियान्वयन करना शुरू कर दिया। यह योजना थी- ‘‘आपरेशनगुलमर्ग‘‘ जिसके अन्तर्गत पाकिस्तान कश्मीर का एक तिहाई भाग भारत से छीनने में सफल हो गया और हम देखते रहे। यद्यपि इस आपरेशन गुलमर्ग की सूचना एक सैनिक अधिकारी मेंजर ओंकार सिंह गलगल जो उस समय वहां बन्नू फ्रंटियर बिग्रेड के ग्रुप के बिग्रडियर मेजर के रूप में कार्यरत थे। एक लिफाफा उनके हाथ लगा, जिसके ऊपर अति गोपनीय और ‘कान्फीडेन्शियल‘ । यह लिफाफा ओ0पी0 मुरे के नाम था। 20 अगस्त 1947 को बिग्रेडियर मुरे मराल के मोर्चे पर ही गये हुये थे। इस लिफाफे में पाकिस्तान की सेना के कमांडर-इन चीफ- जनरल फे्रंक द्वारा रचित आपरेशन का सारा ब्योरा था। उसमें सारी व्यूह रचना का उल्लेख था कि किस प्रकार से क्या क्या करना है। उसी के अन्तर्गत ही फिर कश्मीर पर आक्रमण हुआ। हम एक तिहाई कश्मीर हाथ संे गंवा बैठै। जब मेजर ्रगलगल के हाथ यह प्लान आया तो उन्हेांने उसी समय बिग्रेडियर मुरे से सम्पर्क स्थापित किया। इस राज को राज ही रहने दो - ऐसा ब्रिेगडियर ने मेजर गलगल से कहा। साथ ही यह चेतावनी भी दी कि यदि आपने इस बात को बताया तो आपकी हत्या कर दी जायेगी। मेजर गलगल के मौन रहने के बावजूद भी उन्होनें भय से नजरबंद कर दिया गया। किन्तु वह किसी तरह बच निकले और मालगाड़ी से दिल्ली प्रशासन को पाकिस्तानी षडयऩ्त्र का सारा ब्योरा दिया, कि कैसे 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर आक्रमण होने वाला है। किन्तु हमारी सरकार ने उस पर जरा भी ध्यान न दिया और फिर जो हुआ वह आज भी उसका नासूर हमारी छाती पर है। इसके प्श्चात 1965 और 1971 में भी पाकिस्तान ने आक्रमण के दुहसाहस किये और मुंह की खायी।
1- हिन्दी दैनिक ‘‘आज‘‘ 8 अप्रैल 1990, बरेली संस्करण, पृष्ठ - 7