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यह सब क्यों और किसलिये? (लेख)


        भारत इस देश का नाम क्या पडा कुछ और क्यों नहीं, इसके अक्षरों को तनिक हम यदि अन्तःदृष्टि से देखें तो इसके अर्थो का बोध होगा कि भा- अर्थात प्रकाश, रत अर्थात् तल्लीन, जो प्रकाश की खोज में नित तल्लीन रहे ऐसा था मेरा भारत। यथा नाम तथा गुण। छिपा है इस में अतीत की मधुर स्वर लहरियों का संगीत। जो यहा के कण-कण में छिपे प्रकाश पुंजों की गाथा को सुना रहा है और अब कोस रहा है। आज के उन सारे कर्णधारों को कह रहा है क्यों कलंकित कर रहे हो मेरे नाम को? क्यों विकृत कर रहे हो मेरे स्वरूप  को? मेरे इस नाम में छिपे अर्थ के तत्व को तो यह मैकाले के दत्तक पुत्र समझने का प्रयत्न करते हैं और उन्हें किसी को समझने दे रहे हैं जो इसकी व्याख्या करने की कोशिश करते हैं उन्हें साम्प्रदायिक कहा जा रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात मानसिक दासता की बेड़ियां सबको पहना दी है। मनचाहा अर्थ निकाल लेते है हर शब्द का क्योंकि इन्हें तो केवल प्रिय है बस सत्ता-

          कहते है कि जिस देश का साहित्यकार बृद्धिजीवि पथभ्रष्ट जब हो जाता है तब वह राष्ट्र के समाज को लेकर डूबता है। अतीत पर इसकी आस्था होने से उसे ठुकराया जा रहा है। भविष्य का कुछ पता नहीं वर्तमान में चल रहा है दिशाहीन इनका कारवां। प्रगतिशील का जनून सवार है इनके मन मस्तिष्क पर।

          बना रहे है उस बात को, भाषा को, साहित्य को, सम्प्रभुता को, संस्कृति को वर्णसंकरी। अंग्रेजियत के दीवानों ने भरती करना शुरू कर दिया है। अं्रग्रेजी के कुछ ऐसे शब्दों को अपनी भाषा में जिनका उनके शब्द कोष में चाहे कुछ अर्थ हो किन्तु यहां उनका जैसे दुरुपयोग हो रहा है। अंग्रेज भी अपने मन में कहते होंगे कि चलो तनसे तो इन्हें हमने आजाद कर दिया  मन से तो ये अब और भी गुलाम होते जा रहे हैं।

          भारतीय दर्शन का ज्ञान एक अथाह सागर की भांति है जिसे कई शाखाओं या भागों में विभाजित कर दिया गया क्योंकि किसी एक मानव के मस्तिष्क में इनती क्षमता नही जिसका वह पार पा सके। सबने अपने अपने घर पर लिये इसमें से किसी विषय विशेष के जानकारों के समूह को समुदाय कहा जाने लगा। जैसे वेदान्त और न्याय मीमांसा  के तत्ववेता न्यायिक और मीमांसक कहलाये। इसी प्रकार से और भी और यहीं फिर साम्प्रदायिक कहलाये जाने लगे।

          जिस सेक्यूलर शब्द का बड़े जोर शोर से शंखनाद किया जा रहा है जब विशेषण के रूप  में इसका प्रयोग किया जाये तो इसके अर्थ युग या शताब्दी में एक बार घटने वाला सांसारिक साधारण आलोकिक आदि और जब संज्ञा के रूप  में तो अर्थ होता है गृहस्थ दुनियादार धर्म के संकुचित विचारों को मानने वाला। इसी अंतिम अर्थ को लेकर सैक्यूलर ही हमारे यहां का अनुवाद धर्म निरपेक्ष किया गया है। क्या धर्म सेक्यूलर शब्द का अर्थ धर्म के संकीर्ण विचारों को मानने वाला बताया जाता है किन्तु धर्म का अर्थ ही मजहब है ही पंथ है। धर्म वह आध्यात्मिक ज्योतिर्लिंग है जिसकी सुगधित रश्मियों से मानव को श्रेय और प्रेम की सहज ही प्राप्ति हो जाती है। उसके दोनो लोग सुधर जाते हैं जिससे निरपेक्ष होकर यदि साधारण भाषा में कहा जाये तो कहा जायेगा खुदा ही मिला ओर बिसाले सनम की दशा हो जाती है।

क्या संविधान में धर्म निरपेक्ष शब्द है?

          आज बड़े बड़े राजनेता, छोटे-बड़े नेता, बुद्धिजीवि दुहाई दे रहे है, संविधान को धर्म निरपेक्षता की, देश की अखंण्डता की, सिद्धान्तों की, सामाजिक न्याय की, न्यायालयों के निणयों की। रो रहे है नैतिकता और जीवन मूल्यों को बहा रहे है टसवे शोषित वर्ग और मूल्यों को जातियों, जनजातियों, अनुसूचित जन जातियों के उत्थान को। कोई उनसे पूछे जब 1950 में संविधान लागू किया गया थां। उसमें जिन आदर्शो का उल्लेख किया गया है क्या वहां धर्म निरपेक्ष शब्द का कही नाम भी है? जब श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो उन्हें संविधान में संशोधन कर पंथ निरपेक्ष शब्द जोड़ दिया था। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भी संशोधित संविधान मेंधर्मका शब्द क्यों नहीं जोड़ा? क्योकि वह सब लोग इस बात को समझते थे कि यदि लोग धर्म निरपेक्ष हो गये तो उसके परिणाम क्या हो सकते हैं धर्म निरपेक्षता साम्यवादियों की देन है, जो धर्म को अफीम मानते हैं अब तेा इस अफीम का प्रयोग साम्यवादियों के जन्म स्थान में भी होने लग गया है। जरुरत है इसके स्वरूप को समझने और इसको जीवन में धारण करने की। धर्म में कहीं-कहीं भी संकीर्णता और तमस नहीं, हां इसके बिना आज मानव अंधेरी गलियों में भटक जरुर रहा है। धर्म दण्ड ही राजतंत्र और माज को सत्य मार्ग पर चलाता है।

 

देश की अखण्डता की बातें -

          देश की अखण्डता की बाते करनेवालों ने ही देश के टुकड़े किये और करने जा रहे हैं अपनी नीतियों से। जब विषैले बीज बोये जायेंगे तो उनमें अमृत फल कैसे लगेंगे।

              हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,

              आपस में है भाइ्र्र - भाई।।

          यह नारा देश के विभाजन का कारण बना। जब किसी के मन में यह भावना नित जगाई ही रखी जाएगी कि तुम हिन्दू हो, तुम मुसलमान, तुम सिख और तुम ईसाई, तो अलगाव की भावना जगती ही रहेगी। कैसे एकीकरण होगा दिलों का, अंग्र्रेजों ने तो फूट डाल कर राज करता था,वह तो विदेशी थे। किन्तु हमारे कर्णधार कर क्या रहे हैं स्वतंत्रता प्राप्ति के प्श्चात पृथकता  की ओर ही उभारा, यही हर नेता कह रहा है कि भारत बहु संस्कृतियों का बहु धर्माे का संगम हे। कितने खेद का विषय है यहां एक पिता की संतान होते हुए रक्त का नाता होते हुए, पूजा पद्धति के बदलते ही राष्ट््रीयता ही यहां बदल जाती है। ऐसा क्यों हुआ? यह सब उसी के कारण कि बहुभाषाई, बहु संस्कृति बहुत धर्मो का देश है। जो ऐसा कहते हैं उनसे पूछा जाए कि अन्य देशों में क्या ऐसा नहीं है? जापान को लीजिए, कितना विनाश हुआ उस देश का यदि वहां कर्णधार भी इसी प्रकार के नारे लगाते रहते तो क्या वह आज विश्व में उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता था। एक राष्ट््रीय भावना ही किसी देश को संगठित रख सकती है और संगठित देश्श ही हर प्रकार से शक्तिशाली बन सकता है। चाहिये तो यह था कि-

          हिन्दी है हम हिन्दी सिर्फ और कोई जात।

          छुट्टी मिलती जंग से क्यों यह लगते घात।

          तुष्टीकरण की नीति ही साम्प्रदायिकता की जननी है।

          जब तक स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व विशुद्ध राष्ट््रीय विचारधाारा वालों के हाथ में रहा, हिन्दू मुस्लिम का प्रश्न उठा ही नहीं, किन्तु जब से तुष्टीकरण करने वालों के हाथ में इसकी बागडोर आई, अतीत हमें बताता है उसका परिणाम वर्तमान के गले मिलकर कि कैसे उन्हेांने मिस्टर जिन्ना के चरण चुम्बन करके देश का विभाजन करवा दिया। यूं कहिये कि भारत मां कीहत्या आजादी के बादे से लेकर अब तक जो भी सरकारें आई उन सबने अल्प संख्यकों को संतुष्ट करने की नीति को ही अपनाया और इस देश में बहुसंख्यक समाज की भावनाओं की सदा उपेक्षा और दमन जितना हुआ है, आज तक विश्व के और किसी भी बहुसंख्यक समाज का नहीं हुआ। जितने बलिदान इस देश में बहुसंख्यक समाज ने अपने राष्ट्र की आजादी के लिए दिये हैं उतने और किसी ने नहीं दिये हैं, कहने को कोई कुछ भी कहता फिरे। गांधी जी के बाद नेहरु जी ने इस वर्ग को संतुष्ट रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बम्बई में कट्टरपंथियों के मुहम्मदी जुलूस का नेतृत्व किया, कश्मीर में धारा 370 प्रदान की, क्या मिला देश को? विश्वनाथ प्रताप सिंह तो अपने शासन काल में बुखारी की कृपा कोर को ही देखते रहे। यह सब करने के बाद भी क्या वह उन्हें संतुष्ट कर सके?

रामजन्म भूमि और न्यायालय-

          एक कहावत है- नौ तेल होगा राधा नाचेगी। यह उक्ति शत प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है राम जन्म भूमि के विवाद के समाधान में। वैसे तो यह विवाद वर्षो से न्यायालय में विचाराधीन है जिसका कोई भी समाधान नहीं निकला। पता नहीं और कितनी देर तक यूंही चलता रहे यह केस न्यायालय में जो भी सरकार आती है वह इसे टालती ही जाती है। कहा जाता है कि आपसी सद्भावना से दोनो पक्ष सुलझा लें इस विवाद को नही ंतो न्यायालय का निर्णय मानो- किन्तु  न्यायालय का निर्णय कितनी शताब्दियों में मिलेगा? दूसरे यह विवाद मात्र भूमि के टुकड़े का नहीं जिस पर कोई न्यायालय अपना निर्णय दे। इससे जुड़ा हुआ है हमारे राष्ट््र की अस्मिता का प्रश्न, उन सब लोगों की भावनाओं के साथ, जो इस देश को अपना यहां के पूर्वजों को अपना पूर्वज मानते हैं- जो मानते है कि विदेशियों को आक्रांता जो इस विशाल भूखण्ड को भारतमाता कहते है। हां वह लोग इस देश को भारत माता नहीं मानते जो इसे डायन कहते हैं वे ही इसे भूमि का टुकड़ा मानकर न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करने को कहते हैं और साथ ही न्यायालयों के निर्णयों की धज्जियां ही उड़ाते रहते है। क्या उत्तर है उन सबके पास जो इस देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरु थे- उन्होंने 1958 में किस न्यायालय के निर्णय और किस संविधान की धारा के अन्तर्गत मीरवाडी पाकिस्तान को दे दिया था?

          2- जब 1976 में इलाहाबाद के उच्च न्यायालय न्यायाधीश्ज्ञ श्रीजगमोहन ने पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरागाधी का चुनाव केवल रद्द ही किया था, इसके साथ ही उन्हें 6 वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य भी घोषित कर दिया था तो इंदिरा जी ने 25 जून 1976 की रात के साढे दस बजे उस समय के राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद को तुरन्त आदेश देकर मात्र 2 घंटे के भीतर ही सारे देश में आपात स्थिति लागू कर दी और प्रातः होने से पूर्व ही हजारों लोगों को बन्दी बना लिया। कितना सुन्दर न्यायालय के निर्णय का था यह सम्मान।

          3- भारत के उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय का क्या हश्र हुआ जो उससे 1985 में शाहबानो के केस में दिये? बौखला उठा था सारा मुस्लिम समुदाय धमकियां देने लग गये थे वह लोग नरसंहार की। यदि उनके पर्सनल ला में दखल दिया तो कितनी इज्जत मिली न्यायालय के निर्णय को? मुसलमान किसी कोर्ट का फैसला नहीं मानते अपने शरियत के आगे का कुरान के सामने।

          4- धार्मिक आस्था का भी एक उदाहरण 1987 में हमारे सामने है। जब कलकत्ता हाईकोर्ट में कुरान की कुछ आयतों के विरूद्ध रिट  याचिका स्वीकार कर ली थी तो सरकार के दबाव में आकर न्यायालय में होने वाले खुले तर्क वितर्क को रोक दिया गया क्या न्यायालय की तलवार मात्र हिन्दुओं के लिए ही है? हां तलवार हिन्दुओं के सिर पर ही लटक रही है, जिसको अभी अभी अयोध्या की घटनाओं ने प्रमाणित किया है। अब वहां की घटनाओं ने प्रमाणित किया है। अब वहां की घटनाओं पर पूछ रहा है हाईकोर्ट उत्तर प्रदेश की सरकार से कि जो शिलान्यास नवम्बर 1989 में हाईकोर्ट के आदेश से जिस स्थान पर हुआ था- किसकी आज्ञा से उसे तोड़ा गया? किसके आदेश से 30 अक्टूबर को पंच कोसी परिक्रमा रोकी गई? किसके आदेश से 2 नवम्बर 1989 को निहत्थे कारसेवकों का नरसंहार किया गया? इतना बड़ा नरसंहार जो आज तक विश्व के किसी भी देश में अपने धार्मिक और मौलिक अधिकार के अन्तर्गत अपने इष्टदेव की पूजा करनेवालों का किया गया हो। 13 अप्रैल 1919 को भी निहत्थे आजादी के दीवानों का नरसंहार हुआ था। तब जनरल डायर ने कुल 284 की बलि ली थी- वह अंग्रेज था। अब एक अपना जनरल डायर मौलाना मुलायम सिंह है। उस नरसंहार से कई गुना अधिक था वह नरसंहार। मजे की बात यह कि भारत के किसी भी सर्वोच्च नेता ने आंसू बहाना तो दरकिनार। किसी ने एक शब्द भी अच्छे बुरे का नहीं कहा। क्या अपराध था इनका? क्योंकि सब हिन्दू थे। क्या हिन्दुस्तान में अपने को हिन्दू कहना दंडनीय है? हां क्योंकि जो अपने आपकेा इस देश में हिन्दू कहता है वह ही साम्प्रदायिक है और साम्प्रदायिकता को मिटाने का बीड़ा उठाया है आज तक जो भी सरकार बनी है।

          ‘भारत देश उत्थान मुसलमान ईसाईयों पर इतना निर्भर है कि हिन्दू अपने धर्म की रक्षा कैसे करते हैं।‘ -महात्मा गाधी (नवजीवन 15-5-25)

          इन तथाकथित बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील कहे जाने वाले साहित्यकारों एवं नेताओं और राजनेताओं ने सत्ता सुन्दरी के मोह जाल में फंसकर जो तुष्टिकरण का  मार्ग अपनाया परिणामस्वरूप भारतीय इतिहास सस्कृति और इसकी अस्मिता का निरंतर दमन होने लग गया, यही नहीं अपितु सारे हिन्दू दर्शन को लोग मिटाने पर तुल गये तो अपने धर्म की रक्षा हेतु जब हिन्दू ने आवाज उठाई तो ये लोग उसे साम्प्रदायिक कहने लगे। हिन्दुत्व ही तो राष्ट्रीयता का दूसरा नाम है। यदि यही मिट गया तो राष्ट्र कहां बचेगा? देख नहीं लिया हम सबने, पाकिस्तान बना दिया इसी तुष्टीकरण की नीति ने।

          खेत में बीज फेंक देने से ही फसल उठ नहीं आती उसके लिए कृषक को खेत को उसके योग्य बनाना होता है, इसके बाद कृषक के सपने साकार होते हैं। यही बात आरक्षण नीति पर भी लागू होती है। यहां भी तुष्यिटकरण पतवार की उपज हुई। यह फसल नहीं जो अपेक्षित थी। वैसे 40 वर्षो से आरक्षण चला रहा था, कितना लाभ पहुंचा उन लोगों को जिनके लिये संविधान में इसकी व्यवस्था की गई थी भारत का बाबा आदम ही निराला है यहीं  पर ही दो तीन शब्दों के ईर्दगिर्द यहां की सारी राजनीति घूम रही है। वे है- अल्पसंख्यक,धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण। इन्हीं के कारण ही सारा देश अशान्ति की ज्वाला में झुलस रहा है। ऊंच नीच, जाति-पांति को मिटाने के नाम पर मिटती हुई जात-पांत को जिन्दा किया जा रहा है। देश की अखंडता की रक्षा करने का नित संकल्प लेने वाले, पहले से हिन्दू-मुस्लिम के दिलों को बांटा जब हिन्दुओं में फूट डालकर सैंकड़ों छात्र-छात्राओं की लाशो पर नाच रहे हैं। किस देश में है आरक्षण और साम्प्रदायिकता की सद्भावना के नारे? इस देश का राष्ट्रपति क्या पिछडे़ वर्ग का नही बना था? श्री जगजीवन राम जी देश के किस उच्चतम पद पर नहीं रहे - वह कौन थे? इसी प्रकार और कई महानुभाव हुए है ंऔर अब भी उच्च पदो पर है जो पिछडे़ वर्ग के है। जब वह लोग वट वृक्ष बन गये तो कितना पनपने दिया उन्होंने अपने भाइयों को ? इसी प्रकार वह वर्ग जिन्हें अल्पसंख्यक कहा जाता है क्या उनमें से राष्ट्रपतिउप राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नहीं बने? सेना के उच्च पदों पर क्या उनको आसीन नहीं किया गया? यही तीन शब्द मेरे राष्ट्र के भाग्य में अंधेरे बुन रहे है। आर्थिक क्षति हो रही है, समजा टूटता जा रहा है और प्रिय नेता शतरंज की चाले चल कर सत्ता की बाजी जीतने हेतु नई चाले चलने में लगे हुए है एक दूसरे को। किस संविधान की धारा ने उन्हें रोका और किस मंडल आयोग के कोटे से वे लोग आगे बढ़े? और फिर मंडल आयोग जिसकी रपट का आज सहारा लिया जा रहा है, वह कब बनी और उसके सुझाव क्या है? इस पर भी क्या किसी ने ध्यान दिया है या बिना विचार किए ही उसे लागू करने का यत्न किया जा रहा है इसके लागू होने से शायद उन वर्गो को तो इतना लाभ पहुंचे, जितनी हानि भारत को अपनी प्रतिभाओं के दमन करने से होगी। अब देखे उन सुझावों को, जो मंडल आयोग ने पिछड़े वर्गो, जन जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान हेतु दिए हैं।

1- भूमि सुधार व्यापक रूप से और स्थायी होना चाहिय।

2- अविकसित लोगों के लिए सभी प्रकार की शिक्षा निःशुल्क और अलग से करने की व्यवस्था।

3- आर्थिक रूप से सम्पन्न संस्थाओं द्वारा शिक्षा प्राप्त करने वाले पिछड़े वर्गो के लिए धन की व्यवस्था करना अनिवार्य।

4- सामाजिक चेतना जगाने का प्रयत्न

5-इन प्रयत्नों के पश्चात ही यह आरक्षण व्यवस्था, उन व्यक्तियों   वर्गो को लाभान्वित कर सकेगी।

          मंडल आयोग 1980 में बिठाया गया था-जिसने1931 के सर्वेक्षण को आधार बनाया 50 वर्ष में अनेक परिवर्तन हो गये और नये वर्गीकरण हुए उनका भी इसमें कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं बनाया गया। सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटने वाले क्या बतायेंगे कि क्या ऊंची जातियों कही जाने वाली जातियों में सभी धन्ना सेठ ही है? क्या इस वर्ग में अधिकांश अभावग्रस्त नहीं है? क्या छोटी जातियों में निर्धन ही निर्धन है?

          क्या उच्च वर्गो में सुधार जैसे लाखों उपाय नही है? क्या इस न्याय से उनसे रोटी छीन कर, उनको भूखे मारना अभीष्ट है? छोटी रेखा का बड़ा बनाओं किन्तु बड़ी को काट कर नहीं- बड़ी को बड़ी रहनेदो- छोटी रेखा को बड़ा बनाओ, तब ही समानता आएगी समाज मंे। तब कोई छात्रा या छात्र आत्मदाह करेगा और ही आत्महत्या। तब ही प्रतिभाओं का विकास होगा, दमन नहीं। दिलों को खंण्डित मत करों- यदि राष्ट््र की एकता- अखण्डता चाहते हो। किन्तु कोई मन से चाहे भी - यहां तेा -

          सत्ता प्रेम क्रीड़ा करे- जलने गे मसान।

          स्वार्थ सिद्धि की होड़ में देश बना श्मशान।।

          एक शब्द में यदि कहा जाय तो आज मेरे देश में सिद्धान्तहीनता का साम्राज्य है। कौन सुनता है नकार खाने में तूती की आवाज। कहां के आदर्शकहा है मानवीय मूल्य? आज यदि गांधी जी जीवित होते और जातीय आधार पर आरक्षण के विरूद्ध आमरण अनशन करते, तो ये लोग उन्हें मर जाने देते- इन्हीं नवयुवकों की भांति जो आत्मदाह कर रहे है- इसके विरूद्ध।

 

मस्जिद कहे जाने वाले स्थान के चिन्ह-

           मदिर,, गुरूद्वारा, गिरिजाघर अपने अपने विशेष चिन्हों के माध्यम से दूर से ही जैसे पहचाने जा सकते हैं कि यह स्थान अमुक मत के मानने वालो का है, ऐसे ही मुसलमानों के पूजा गृह को जिसे मस्जिद कहा जाता है- उसके भी विशेष चिन्ह होते है- जो इस प्रकार हैंः-

1- मस्जिद में एक गबुम्बद और चार मीनार प्रायः होते है।।

2- मस्जिद के अंन्दर वज़ू करने का स्थान होता है।

3- मस्जिद में मिम्बर का होना अनिवार्य होता है, जिस पर से मौलवी नमाज अदा करवाता है और बाज करता है।

4-मस्जिद में किसी भी प्रकार का कोई बुत प्रतिमा नहीं होनी चाहिये। क्योंकि इस्लाम निराकार की उपासना को बलदेता है।

5- पांचवा जो अति महत्वपूण्र है- वह है गहराब का होना, क्योंकि काबा की ओर मुंह करके ही हर मुसलमान को नमाज अदा करना लाजमी है, अन्यथा वह नमाज कबूल होगी इसलिए गहराब के बिना वह स्थान मस्जिद नहीं कहा जा सकता यह अति महत्वपूर्ण चिन्ह है।

          आइये, इस परिपेक्ष्य में जरा देखे उस पुनीत पुरातन स्थल को, जहां भगवान विष्णु का राम रूप  में अवतार हुआ था त्रेता में। फिर कालान्तर में उज्जैनी के सम्राट विक्रमादित्य ने लगभग आज से 2050 वर्ष पूर्व उसका जीर्णोद्धार किया था। कसोटी के 84 खम्बों पर भगवान राम के भव्य मंदिर का पुनः निर्माण करके उसी स्थल पर जिसे एक विदेशी बर्बर हमलावर ने 1528 में तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वह ऐसा कर सका, तोपों से उड़ा देने पर भी। भारत की गौरव शाली संस्कृति के प्रतीक को वह मिटा सका- वह क्रूर हत्यारा। हां वह उस मंदिर के ऊपर तीन गुम्बद बनाने में जरूर सफल हो गया जिन्हें उसने भारतीयों को अपमानित करने हेतु विजय स्तम्भ माना। आज उसी स्थान केा बावरी मस्जिद कहा जा रहा है और आज के जयचन्द और मानसिंह अपने तुष्टिकरण के से उसे विवाद बना गहराते ही जा रहे है। कोई उन अरब देश के भय से कम्पित का पुरूषों से पूछे:-

1- क्या वहां महराब है।,

2- क्या वहां कसोटी के 14 खम्बे आज भी शेष नहीं है, जिन पर देवाकृतियां है?

3- क्या वह स्थानमस्जिद हो सकता है, जहां बुत प्रतिमा हो- विशेष कर बराह की आकृति?

5- कुरान शरीफ के अनुसार जिस स्थान पर बलात से अधिकार करके मस्जिद बनाई जायेगी- वहां पड़ी गई नमाज अल्लाह को स्वीकार नहीं होगी- क्या यह असत्य है,

6- यदि मुसलमान हजरत मुहम्मद साहब पर इमान रखते है और उनके लिए- अपनी देश, अपनी संस्कृति अपने पूर्वजों की आन-बान शान को ही नहीं अपनी जान तक को भी न्योछावर कर देते है- आज क्या वह उनके फरमान की भी अवहेलना तो नहीं कर रहे? जब स्वयं पैगम्बर साहब ने मस्जिद --जरार्र-- को तोड़ने का आदेश दिया था, क्योंकि वह भवन एक विधवा का था, जिसके बलात से छीना गया थां वह रोती हुई आई थी हजरत के पास। उन्होंने फरमान भी जारी किया था कि किसी भी स्थान पर बलात से बनाई गई मस्जिद में अदा की गई नमाज अल्लाह को कबूल नहीं होगी, क्या यह ऐसा नहीं है?

7- क्या इसी तरह से अरब देशों में मस्जिद ‘‘मुबाहिला‘‘ को नहीं तोडा गया?

          इसके अतिरिक्त और भी कई मस्जिदों को अरब देशों और पाकिस्तान में भी सड़को और अस्पतालों के निर्माण करते समय जो भी इनके मार्ग में आई- हटाया गया। उन हटाई गई सभी मस्जिदों में वे सभी चिन्ह थे जो एक मस्जिद में होते है। यहां तो सवाए तीन गुम्बदों के ओर कोई निशान भी नही। उलटा वहां पर बराह आदि की देव आकृतियां है उन खम्बों पर क्या अब मुसलमान निराकार की उपासना से ऊब कर साकार के उपासक बनना चाहते है?

          जिन हिन्दुओं? मुसलमानों और अरब राष्ट््रो को बाबर के विजय का इतना ख्याल है वह क्यों नहीं इस्राईल के अधिकार वाली मस्जिद ‘‘आल-अकसा‘‘ की ओर देखते जिसे प्रतिदिन यहूदी अपमानित कर रहे हैं।

          अन्त में इस देश के शासकों से यही प्रार्थना है न्याय करो, तुष्टिकरण की नीति को त्यागों, क्या तुमको जलता हुआ कश्मीर, पंजाब, असम, यहां तक की सारा राष्ट््र नजर नहीं रहा? क्या सब दोष हिन्दुओं का ही है, यह हिन्दू आन्दोलन तुम्हारी इसी तुष्टिकर नीति का ही परिणाम है। ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गम्य‘‘ कहने वालों सत्य क्या है, इसे पहचानों, इतिहास से कुछ शिक्षा लो। इनके साथ ही एक प्रश्न भी है क्या -

                   बदल मुहम्मद यशुं कर सकते-

                   तुम क्या जन्म स्थान कहीं,

                   करने की तो बात छोड़ियें-

                   कह भी तुम कुछ सको, नहं

          यदि ऐसा है तो राम जन्म भूमि के स्थान को भी बदलने की बात मत करो।

 

 

1- हिन्दी दैनिक ‘‘आज‘‘ बरेली संस्करण, 28 दिसम्बर 1990, पृष्ठ - 2 एवं दिनांक 29 दिसम्बर 1990, पृष्ठ 2 पर क्रमषः प्रकाशित हुआ।