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छब्बीस जनवरी का रोदन (लेख)

 

इतिहास क्या है? भूत काल की घटनाओं की गाथाओं का सजीव रेखाचित्र, और घटनायें? मानव उर की भावनाओं का विस्फोटक होना। इस का संबंध मात्र राजनीति की वारांगना से नहीं, अपितु यह समग्र समाज के क्रियाकलापों का भी दिग्दर्शन कराता है। हां तो, इतिहास 26 जनवरी का लाहौर - रावीका किनारा-31दिसम्बर 1929 अर्द्धरात्र का समय-राष्ट्रीय कांग्रेस ने पं0 जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में, प्रस्ताव पारितकिया ‘‘पूर्ण स्वतंत्रता‘‘ का और इसके साथ ही ‘‘स्वाधीनता दिवस‘‘ के रूप में मनाने का निश्चय किया, जिसे आज गणतंत्र दिवस कहा जाता है, 26 जनवरी का दिन, प्रतिवर्ष।

        शांत  सरोवर का जीवन ही क्या? वह तो शिशिर में वर्फ की चादर भी ओढ़ लेता है। सतत हिलोरें या तूफानी लहरें ही सागर केअस्तित्व का परिचय देती हैं। 

        तरंगित होना ही मन का स्वभााव है, गुण है वरना यह भी मांस का एक लोथड़ा ही होता, शरीर के और अंगों की तरह। यह मन तो सभी को प्राणित करता है, जीवित रखता है अपनी संजीवनी शक्ति से। यह मन तो अवचेतन की चेतना का अनुभावक है, बुद्धि राजा है तो मन मंत्री। इसी को बोध होता है ‘‘स्वतंत्रता और परतऩ्त्रता‘‘ का।

        स्वतंत्रता कितना सुन्दर, कितना विमोहक कितना आकर्षक शब्द है यह। पहाड़ जैसी ऊॅंचाइयों, कठिनाईयों को तथा खून के समुद्रों को भी तैर कर पाने की जिसके लिए उत्कंठा। अखिर यह है क्या वस्तु जिसके लिए मानव ही नहीं पशु पक्षी भी जब वे बन्धन में जकड़े जाते हैं इसी की प्राप्ति हेतु तड़पते हैं। 

        एक ऐसी सुगन्ध जिसकी उपमा हवाओं से भी नहीं दी जा सकती, कमलों का सौरभ भी जिसके सामने मंद है, रजनीगंधा की सीमायें भी जहां सीमित होजाती है, जो साकार तो नहीं किन्तु जिसकी खुशबू जन जनके रोम-रोम कोइतना महका देती है कि जिसकी प्राप्ति हेतु हर प्राणी बड़े से बड़ा बलिदान भी देने को हर समय तत्पर रहता है।

        स्वतन्त्ऱता इसका अर्थ उर्दू का शब्द आजादी है क्या? या क्या अंग्रेजी का इन्डिपैन्डेन्ट शब्द इसकी भावाभिव्यक्ति कर सकता है। इस शब्द से जिस ध्वनि का विस्फोट होता है, शायद ही कुछ लोग समझ पाये हों, क्योकि हम उस देव भाषा को ही भूलते त्यागते जा रहे हैं, जिसकी ऐसे शब्द देन हैं, जो तत्ववेत्ता हैं, मार्ग प्रदर्शक हैं।

        स्वतंत्र स्व-तऩ्त्र (स्व) अपने पर (तन्त्र) शासन अर्थात अपने पर अपना शासन और स्पष्ट व्यक्ति के आत्मानुशासित होने को,व्यक्ति का स्वतऩ्त्र होना होता है ‘जब जिस समाज में ऐसे व्यक्ति पथ प्रदर्शक इस स्थिति के होगें, तो निश्चय ही वह देश नन्दन वन के लिए भी उपमा का विषय बन जायेगा। भारत इसीलिए इस देश का नाम पड़ा। क्योंकि भा-रत, भा (प्रकाश)रत (खोज में लगे रहना) यहां का जन-जन प्रकाश की खोज मेंरत था। इसीलिए जगदगुरु कहलाया। यहां गुरू शब्द की भी थोड़ी सी व्याख्या जरूरी है। गु-रू अर्थात जो अंधकार की गुफा से प्रकाश की ओर ले जाये वह गुरू है। ऐसे थे यहां के लोग, जिनके चरण रज की भीनी सुगन्ध, अन्य देशों के आत्मपिपासु भॅंवरों को आज भी अपनी ओर खेंच कर ला रही है।

        यह थी भूत काल की अक्षय निधि। जिसे हमने अपने ही पांव तले रौंद डाला। पश्चिमानुगामी बनकर, लक्ष्मी का तमस प्रिय वाहक बनकर, स्वार्थ के रथ पर आसीन उसे तीव्र गति से दौड़ाते, कर्तव्यों को बड़ी निर्दयता से कुचलते गये। किन्तु यह हुआ तो क्यों? स्वतन्त्र होने की अपेक्षा, जब से उच्छ््रखल बनते गये हम और परतन्त्र भी ऐसे कि भूल गये हम अपने अस्तित्व को। और यह देश जिसने कभी आलोकित किया था सारे विश्व को, सिमटता सिमटता दीपक की लौ बन कर रह गया। किसी झोपड़ी के चिराग की तरह।इस का परिणाम यह हुआ हम गुलामी की जंजीरों में जकड़ते ही चले गये। तन से मन से भी। कई विदेशी आक्रमण हुए, लुटेरो ंके, आतताइयों के। विधर्मियों ने हमारे गौरवमयी अतीत को दर्शाने वाले भव्य आस्था स्थलों को तोड़ा, नष्ट किया।

        अपनी अस्मिता की रक्षार्थ पृथ्वीराज चैहान से लेकर सांगा, प्रताप और शिवाजी जैसे असंख्य वीरों, वीरांगनाओं ने यहां तक कि गोरा-बादल, हकीकत राय जैसे वीर बालकों ने भी रूठी हुई स्वतंत्रता की देवी को प्रसन्न करने हेतु रचे महायज्ञ में निरंतर आहूतियां दी, यवनों के कुछ क्षीण दिव्यालोक फिर भी इस कालखण्ड तक हमारे पास कुछ सुरक्षित रहा।

        आग लेने आई घर की मालिक बन बैठी यह कहावत मुस्लिम काल में आये अंग्रेज व्यापारियों पर पूरी उतरती है। ‘‘फूट डालो-राज करो‘‘ की विष वेल डाल दी गई हमारी अमराई पर देखते ही देखते समेट लिया इसने सारी बगिया को।

        देश फिर जगा, मुक्ति यज्ञ आरम्भ हुआ। असंख्य आहूतियां पड़ने लगी। सात समुद्र पार से आये इन परदेसियों में से एक चतुर ने यह मन्त्र दिया अपने साथियों को ‘किसी देश को यदि तुम चिरकाल तक अपना गुलाम बनाये रखना चाहते हो तो वहां की भाषा को बदल दो, लाद दो अपनी भाषा उन पर, भाषा के साथ साथ वहां की संस्कृति भी तुम्हारी दासी बन जायेगी और यही हुआ भी, आज हम स्वाधीन होने के पश्चात भी --

            तन से मन की दासता- हमने की स्वीकारं

            मैकाले का ‘रवि‘ सपन- सत्य हुआ साकार।।

त्रितापग्रस्त अब यह देश-

1- अल्पसंख्यक, 2- आरक्षण, 3- भाषा विवाद

1- अल्पसंख्यक-

        बिखरे मोतियों को पिरोने हेतु, इसे एक सूत्र कहंे या खंड खंड करने वाला कुठार। बीज तो बोया था आम का,मिला फलबकौवे का।

         बीज- हिन्दू, मुस्लिम और सिख ईसाई सब भ््राात।

    फल- इस नारे ने देश का किया विभाजन तात।।

और - इस तारे की वजह से अब यह सब उत्पाात।।

    इसी से जन्मी तुष्टिकरण की नीति, ‘‘ मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की‘‘ जुड़ने की अपेक्षा दिल के टफकड़े होने लगे।

        प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता क्या? चाहिये तो यह था- 

    हिन्दी हम हिन्दी सिर्फ और न कोई जात।

    घुट्टी मिलती जन्म से क्यों ‘रवि‘ लगते घात।।

        क्या पूजा पद्धति बदलने से किसी की राष्ट््रीयता भी बदल जाती है? काल चक्र ने कई देशो में वहां के लोगों की पूजा पद्धति को बदला। उदाहरण के रूप में एक देश को लिया जाता है यहां, वैसे विश्व में और भी कई देश्ज्ञ हैं- इण्डोनेशिया, वहां के लोगों ने अपनी किसी  कारणवश पूजा पद्धति बदल दी, किन्तु उन्होंने, न तो अपनी राष्ट््रीयता त्यागी, न ही अपनी संस्कृति, न रीति रिवाज, न अपने पुरातन नामों का छोड़ाऔर नही अपने गौरवमयी इतिहास पर गर्व करना छोड़ाा। किन्तु वाह रे हमारे प्यारे देश-यहां के कुछ लोगों ने पूजा पद्धति के बदलते ही, अपने खून से घृणा अपने पूर्वजों को पराया, परायों को अपना, अपनी राष्ट््रीयता को ही बदल दिया और गुण गाने लगे उन्होंने हमारे पूर्वजों पर तरह-तरह के जुल्म ढाये और तलवार के सिर से उन्हें विधर्मी बनाया।

            खा पी कर इस देश का सुख ले विविध प्रकार।

            यह कृतघ्नता द्रोह है - उर परदेसी प्यार ।।

        कुछ लोग अब कहने लगे है ‘‘ हम भारत में रहते है‘‘ हम अल्पसंख्यक हैं। यदि ये लोग ‘‘हम भारत के हैं‘‘ बन जाते तो अल्पसंख्यक शब्द स्वयं ही समाप्त हो जाता। न आयोगों की जरूरत पड़ती और न ही कुछ और। इस विराट बट वृक्ष की शाखायें अपने को भिन्न समझ कर यह भी कहती, हम भी अल्पसंख्यक हैं।

2- आरक्षण - 

        एक महिला बहुमूल्य आभूषण पहने जा रही थी, उसके साथ चिथड़े पहने उसके दो बच्चे भी थे। मार्ग में एक अन्य महिलाजो उससे परिचित थी मिली, कहने लगी, अरी  तू तो नग्न हो रही है, पहली ने अपने को देखा कई बार, अच्छी प्रकार से। उत्तर दिया- नहीं तो। दूसरी ने उसके चिथड़े पहने, उसके दोनों बच्चोंको दिखाकर कहा यह तू नगन नहीं हो रही तो और क्या है?‘‘ यही दशा हर उस देश की होती है,जहाॅं सम्पन्नता अपने अभावग्रस्त दीन-दुखियों की उपेक्षा कर स्वयं, वैभवता को प्राप्त हो उन्मत्त हो जाती है। परिणाम अशांति, संघर्ष, टकराव, उपद्रव लूटपाट, दंगे, अग्निकांड, तोड़फोड। जिससे बड़ें हुए देश के प्रगति चरण फिर लौट आते हैं। समस्याओं की बाढ़ सीमाओं तक पहुॅंच जाती है, जो देश की सुरक्षा को भी खतरा पैदा कर देती है।

        पिछड़े वर्ग का उत्थान, अभवग्रस्त लोगों का उद्धार, श्रम के श्वेत बिन्दुओं के फलस्वरूप  लहलहाती फसल में से उनको उनका भाग दिया जाए, किसी का भूखा पेट न रहे, महलों की छाया में झोंपड़ी को भी जगमगाया जाय। इस व्यवस्था को जो क्रियान्वित करें, यह है आरक्षण। किन्तु यह किसी वर्ग, वर्ण, जाति भेद के बिना होने से ही समाज एक सूत्र में बंधा रह सकता है। वरना नये-नये वर्ग बन कर, समाज को और भी निर्बल शक्तिहीन बना देंगे।

        अथर्व वेद का निेर्देश है -

            ‘‘श्रमेण तपसा-सृष्टा व्रम्हर्ण वित्त श्रते श्रितः

अर्थात  श्रम को ज्ञान प्रकाश दे-धन में हो तप त्याग।

      इस जीवन क्रम से बुझे-चन्दन वन की आग।।


3- भाषा विवाद-

        एक राष्ट्र भाषा हो किसी देश को स्नेह सू.त्र में बांधाने में सक्षम होती है। बोलियां तो हर दस मील के अन्तर में थेड़ी बहुत बदल ही जाती हैं। भाषाा के विषय में दो उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूॅगा। प्रथम जब कमालपाशा के नेतृत्व में तुर्की आजाद हुआ, तो उन्होंने अपने सहयोगियों से पूछा- देश में तुर्की भाषा कितने समय में लागू की जा सकेगी- उत्तर मिला- दसवर्ष में। कमालपाशा ने वहीं खड़े होकर कहा दस वर्ष अभी से समाप्त। उसी दिन से तुर्की का राष्ट््र भषा तुर्की हो गई। यूं उन्होंने भाषा की गुलामी का भी जुआ उठा कर फेंक दिया। दूसरा - हमारे बाद, स्वाधीन हुए चीन का, वहां भी सर्वप्रथम चीनी भाषा में विज्ञाान की हर शाखा की शब्दावली का अनुवार कर अपने आत्मसात कर, तब विश्वविद्यालयों में शिक्षा दीक्षा आरम्भ की। आज वह देश हमसे कई गुना विज्ञान में उन्नति के शिखर पर है, शक्तिशाली भी। यह तब हुआ जब उन्होंने शारीरिक दासता के साथ ही साथ मानसिक दासता की जंजीरो भी काट फेंका और जगाया जन-जन में एक राष्ट््रीय भावना की कई सम्प्रदाय के होते हुये भी। क्या रूस, जर्मन, जापान, फ्रांस आदि महाशक्तियां अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही बनीं। उनकी वैज्ञानिक उन्नति क्या इसी भाषा में हुई?

        अब एक और प्रश्न- क्या वह महानुभाव यह बताने का कष्ट करेंगे जो अपने अतीत के प्रति उदासीन और उसे हेय दृष्टि से देखते है, कि गणित के अंक किसने इस संसार को दिये? किसने सर्वप्रथम शून्य का दर्शन कराया? किसे नक्षत्र विज्ञान में यह उद्घोषणा की गई थी कि अनन्त ब्रह्माण्ड है, सहस़्ाों चन्द्र सूर्य, आकाश गंगायें हैं? आज का कम्प्यूटर युग अब भी वेद के उन गणित के 14 सूत्रों तक पहुॅंचने के लिए खाक छान रहा है, कैसे उसका रहस्य जानूं। आज भी प्लास्टिक सरजरी के विशेषज्ञ हमारे यहां के शल्य चिकित्सा विज्ञान को अपना गुरू मानते हैं- क्यों? रामायण, महाभारत काल में जिन अस्त्र शस्त्ऱों का प्रयोग हुआ है और जलयानों, वायुयानों का उल्लेख वहां मिलता है, क्या उस श्रेणी के आयुध अभी तक बन पाये हैं? उल्टा उन महाग्रंथों के धारावाहिकों को ‘‘हीमैन‘‘ के धारावाहिक की भांति बनाया है हमारे निर्माताओं ने।

        अणो अणीयां सम (गीता) सूक्ष्य सेभी अति सूक्ष्य और 

        जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासू दून कपि रूप दिखावा।

        सत जोजन तेहिं आनन कीन्हों।अति लघु रूप  पवनसुत लीन्हा।

                            (सुन्दर काण्ड, रामचरित मानस)

यह किन आत्म शक्तियों की ओर संकेत है जो यहां के सिद्ध पुरूष प्राप्त कर लेते थे। कहां तक वर्णन किया जाय उनका। यूं कहिये कि आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों के ज्ञान में हम कहां तक पहुंच सके थे, वे कहानियां सी लगती है। चाहिए तो यह था कि आज की प्रतिभायें उनको आधार बनाकर आगे बढ़ती किन्तु इन प्रतिभाओं ने गांधारी की भांति निष्ठा की पट्टी बांध रखी है अंधे पश्चिमी विज्ञान रूपी धृतराष्ट्र के लिए (ज्ञान के बिना विज्ञान अंधा होता है) इसके साथ एक और बात भी तो है, इस महाकोष  (पुरातन दिव्य साहित्य) के पक्ष पर जो ताला लगा हुआ है उसकी ताली (सस्कृत) को तो छू ही नहीं सकते क्योंकि उसके छूने से हम साम्प्रदायिक बन जायेंगे। यदि यह निधि हमें प्राप्त हो गयी तो फिर कैसे वेद की गडरियों का गीत कह सकेंगे? कैसे आर्य बाहर से आये हुए हैं- यह मानेंगे? हम आत्म विस्मृत होते गये गैरों के कहने पर, इसीलिए हम कहां से कहाॅं पहुॅच गये है- सत्य तो यह है-

        परीक्षका यत्र न सन्ति देशे। र्नाधन्ति रत्नानि समुद्र जानि।।

    जिस स्थान में परीक्षक (पारखी) नहीं होते, वहांसे उत्पन्न हुए रत्न का भी कोई मूल्य नहीं होता। हमें अपनी भाषा के विषय में अन्तर्मुख होने की जरूरत है आज (एक तरफ तो कहा जाता है कि किसी पर कोई भाषा लादी नही जायेगी किन्तु दूसरी ओर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई है कि विवश होकर अंग्रेजी का मीठा जहर नई पौध की जन्म से घुट्टी में दिया जा रहा है, अपना स्वार्थ सिद्धी हेतु क्या इस देश में गणतऩ्त्र जीवित रह सकेगा इस तरह? सोचना होगा गम्भीरता से इस विषय पर आज हमें- क्योंकि -

        सत्ता ‘प्रेत क्रिया‘ करे- जगने लगे मसान।

        स्वार्थ सिद्धी की होड़ में- देश बना शमशान।।



1- हिन्दी दैनिक ‘आज‘ बरेलीसंस्करण, 26 जनवरी 1990, गणतंत्र दिवस परिशिष्ट पृष्ठ-1

2-हिन्दी साप्ताहिक ‘सहकारी युग‘ रामपुर, गणतं़ विशेषांक, 26 जनवरी 1991, पृष्ठ 6,29 एवं 31 पर।