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नारी (लेख)


 नारी जब मैं तुम्हें मां कह कर पुकारता हूँ और तुम्हारे चरणों की रज-कण को माथे पर लगाता हूं तो मेरे जन्म जन्मान्तर के पाप धुल जाते हैं।

नारी! बहन की पवित्र भावना के रूप में तुम्हारा मुझे वरदान प्राप्त हुआ, तुमने भाई की बलैया ली- ‘‘मेरी उम्र भी भाई को लग जाय। ऐसी कामना करते हुए रक्षाबन्धन के कच्चे धागों से अभिरक्षित किया, तुमने मुझको और भाई ने भी केवल मुंह बोली बहन की लाज को बचाने के लिए प्राणों तक की बाजी भी लगा दी, इस पावन रिश्ते की रक्षा के लिए।‘‘

नारी! जब तुम षोडशी बन नारीत्व की पराकाष्ठा को प्राप्त होने लगती हो, तो पुरुष की अपूर्णता को, अर्धागिनी बन पूर्ण करती हो। ‘शव‘ ‘शिव‘ बन जाता है।

नारी! महर्षि कण्व के समान वीतराग को भी व्याकुल करती हुई, वह तुम्हीं हो, जो कन्या बन कर मुझे उस महान .ऋण से उऋण करती हो, जो मैंने कन्यादान के रूप में लिया था।

परन्तु, हे नारी! मुझे खेद हैं। तुम्हारा इस सब से भिन्न एक और भी रूप है। जो वासना को जन्म देता है और देता रहेगा। उसने जब भी किसी की स्वार्थ सिद्धि का यंत्र बन-रम्भा, मेनका और उर्वशी के या पुरुष से प्रतिशोध लेने हेतु वैशाली की नगर वधू का रूप धारण कर अपनीअति उग्र नग्नता का प्रदर्शन किया, तो हिमालय विचलित हो उठा, संयमी सागर मर्यादा छोड़ बैठा और परिणाम! की कल्पना मात्र से कांप उठते है धरती और आकाश!!

‘सन्मार्ग‘ हिन्दी दैनिक कलकत्ता, दिनांक 2 मार्च 1969, पृष्ठ-3 वर्ष21, अंक 322