आधुनिक युग में विज्ञान ने जितनी उन्नति की है उतनी इससे पूर्व कभी नहीं हुई, ऐसी उन लोगों की धारणा है जिन की यह मान्यता है कि सूर्य का प्रकाश इससे पूर्व कभी हुआ ही नहीं, बस रात्रि का अंधकार था। विज्ञाान की इस उन्नति में आकाश में उपग्रहों द्वारा नाना प्रकार की मानव जीवन के लिये उपयोगी सूचनाएं प्राप्त करना भी है। इन्ही उपग्रहों के माध्यम से, मौसम की प्रतिदिन जानकारी जनसाधारण को दूरदर्शन और आकाशवाणी से दी जाती है। ये कितनी सत्य होती हैं यह तो समय ही बताता है। हां, भारतीय ज्योतिष विज्ञान जब नववर्ष प्रारम्भ होने पर जो सारे वर्ष के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा के दिन भविष्यवाणी करता है वह प्रायः सत्य ही निकलती है। जैसे वर्ष शुरू होने पर यह बताया जाता है कि वर्ष का राजा, मंत्री ओर अन्य अधिकारी कौन-कौन से हैं। और इन आकाशीय नक्षत्रों का भू-मंडल पर क्या-क्या प्रभाव पड़ेगा इसका पूरा ब्यौरा दिया जाता है। इस वर्ष कुम्हार के घर वर्ष का वासा है जिसका अभिप्रायः यह है कि इस वर्ष सामान्य से कुछ कम वर्षा होगी, काश हमारी सरकार ने इस परम्परागत ज्योतिष विज्ञान को भी अपना कर इस पर कुछ और आगे अनुसंधान किए होते। अपने प्रिय पाठकों के ज्ञानवर्द्धन हेतु इस संदर्भ में अद्भुत काल गणना- हिन्दुओं के खगोलशास्त्रियों ने जिस प्रकार से -काल-गणना‘ की है वह अदभुत है जिसे अब सारा विश्व मानने लग गया है। त्रिकालज्ञ युग दृष्टाओं की कितनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति थी इस विषय में, जिसका बोध, काल क इस वर्गीकरण से होता है। कल्प, युग, वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि आदि को जिस क्रम से उन्होंने पिरोया था वह आज तक वैसा ही चला आ रहा है।
निरयण वर्ष -
संपूर्ण सौर मंडल गतिशील है, जहां पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है वहां सूर्य भी एक राशि से दूसरी राशि की यात्रा करता है। वे इस यात्ऱा को एक मास में पूरा करते है। राशियां बारह है। प्रथम राशि मेष है। इसका स्वामी सूर्य है, इसलिए इस पहली तिथि, संक्रान्ति को आरम्भ होने वाले वर्ष को सौर वर्ष कहते है। मेष की संक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला वर्ष विक्रम संवत जो इस वर्ष 2050 है अधिकतर पंजाब में प्रचलित है। इसके अतिरिक्त और स्थानों पर भी विभिन्न नामों से दूसरी तिथि को संवत शुरू होते हैं जैसे-
बंगला संवत -
बंगला संवत् 1400 जो 13 अप्रैल 1993 को शुरू होने वाला एक प्रान्तीय सम्वत् है। उत्तर भारत के सौर पंचाग से जो कुछ इसकी भिन्नता है वह विक्रमसंवत में से 650 घटाने और हिजरी में से 13 कम करके अकबर ने इसको स्थापित किया था, किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अकबर के सिंहासन पर बैठने से पूर्व इसका संवत् 1603 में भी ऐसे लेख मिले है जिसमें इस बंगला संवत का उल्लेख है। बंगाल में कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि बिहार के शासक अलाद्दीन हुसेन शाह ने देशी सं0 और महीनों का हिजरी सन् मिलाप रखने हेतु उक्त सन् को प्रचलित किया था । उसने सं0 1554 के निकट तत्कालीन हिजरी 917 को फसली मानकर आगे को अधिक मास की रीति के अनुसार गणना करके सौर गणित का प्रचलन किया। किन्तु फिर भी यह दोनों संग साथ न रह सके, क्योंकि हिजरी सन् चान्द्र वर्ष होने के कारण सौर के साथ चल न सका।
विक्रम संवत् ईस्वी हिजरी
2050 1993 1413
(-)650 (-)593 (-)13
1400 1400 1400
फसली सन्
यह सन् भी मेष की संक्रान्ति से ही प्रारम्भ होता है। दीन-ए-इलाही चलानेवाले सम्राट अकबर के समय में इसको चलाया गया था। आइन-ए-अकबरी में लिखा है कि फसली सन् सौर वर्ष है और इसका संबंध ऋतु एंव उपज से है। अकबर के शासनकाल में हिजरी सन् राजकीय सन् था, किन्तु वह चान्द्र वर्ष था और ऋतुओं तथा फसल का हिसाब इससे ठीक नहीं बैठता था। मालगुजारी वसूल करने में भी असुविधा होती थी। अकबर ने इसी असुविधा को दूर करने के लिए सौर हिजरी को मिला कर एक नव सम्वत् का फसली रखा। अकबर के नवरत्नों में राजा टोडरमल जिनके पास वित्त और मालगुजारी विभाग भी था, उन्होंने इस सम्वत् को अपनी सुविधा की दृष्टि से तुरन्त स्वीकार कर लिया। तब से यह आज तक मालगुजारी वसूल करने हेतु प्रचलित है।
चान्द्र वर्ष-
चन्द्रमा की शुक्ल और कृष्णपक्ष की घटती बढ़ती कलाओं के साथ कलोल करता हुआ जो वर्ष चलता है- उसे चान्द्र वर्ष कहते है। इसका व वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ हो कर चैत्र कृष्ण अमावस तक चलता हैै, जो अब की 24 मार्च 1993 को शुरू हुआ और दूसरा मुसलमानो का हिजरी जो मुहर्रम की पहली तारीख से, गत 2 जुलाई 1993 से आरम्भ होगा। वैसे तो हर आकाशीय नक्षत्र का मानव जीवन पर ही नहीं अपितु स्रष्टा की प्रत्येक कृति पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता ही रहता है, किन्तु सूर्य और चन्द्रमा का कुछ अधिक ही असर पड़ता है। सूर्य यदि जन्मदाता है तो चन्द्रमा पोषण करता है। यह देखा गया है, वह जो किसी के अधिक निकट होता है उसका प्रभाव दूसरों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही पड़ता है। चन्द्रमा चूंकि पृथ्वी के बहुत निकट है, अतः मानव और सागर तो इससे बहुत ही प्रभावित होते है। इसकी घटती बढ़ती कलाओं से कहा भी गया हेै‘‘चन्द्रमा मनसो जायते‘ चन्द्रमास के अनुसार ही हिन्दुओं के तीज-त्यौहार, व्रत आदि रखने की क्यों प्रथा डाली गई है? यह एक शोध का विषय है। इसके साथ ही जितने भी तीज त्यौहार और व्रत रखे जाते है वे सब ऋतुओं के अनुसार ही होते हैं ओर ऋतुयें सौर मंडल की गति के अनुसार होती हैं, इसलिए सौर वर्ष जो 365 दिन का और चन्द्र वर्ष जो 354 दिनका होता है। इसके अन्तर को समान रखने हेतु अधिक मास के माध्यम से उस अन्तर को दूर कर लिया जाता है। इस वर्ष अधिक मास, भाद्रपद शुक्लपक्ष दिनांक 18/8/1993 से अधि भाद्रपद कृष्णपक्ष दिनांक 16/9/1993 को पड़ रहा है किन्तु इससे पूर्व अब की 13 का पक्ष जो आशाढ़ शुक्ल को होगा, दिनांक 21-6-1993 से 3-7-93 को पड़ रहा है। यह शासक वर्ग और प्रजा दोनों के लिए अनिष्ट कारक है, यही नही इस वर्ष चारग्रही योग और पंचग्रही योग पड़ रहे है। यह भी विश्व के लिए शुभ फलदायक नहीं हैं।
शक सम्वत्
अक्षांश और रेखांश की रेखाओं में खिचे हुए विश्व के मानचित्र में अक्षांश उत्तर से दक्षिण की ओर खिंची रेखाओं को और रेखांश पूरब से पश्चिम की ओर खिंची रेखाओं को कहते हैं। अक्षांश के गणित से सौर वर्ष की गति को जिसे उत्तरायण ओर दक्षिणायन कहते हैं ओर रेखांश के गणित से शक सम्वत् की गणना होती है। इसकी गति सौर ओर चान्द्र वर्ष की भांति नहीं है। इसे शालिवाहन ने चलाया था जैसे विक्रम सम्वत् को विक्रमादित्य ने। किन्तु वास्तव में यह सम्वत् ईसा से लगभग 270 वर्ष पूर्व जब शकों का भारत के उत्तर पूर्व नेपाल की तराई तक शासन था और उसी काल खण्ड में महात्मा बुद्ध भी पधारे थे। महात्मा बुद्ध क्योंकि शक वंश के थे, इसलिए उन्हें शाक्य मुनि गौतम भी कहा जाता था, उनकी स्मृत में उनके अनुयाइयों ने किसी समय इस सम्वत् को चलाया हेागा जिसे ईसा के 78 वर्ष पश्चात अब से 1925 वर्ष पूर्व शालिवान ने चलाया। इस वर्ष यह 22 मार्च 1993 को प्रारम्भ हुआ हे।
सायन वर्ष-
जिस दिन शिशिर ऋतु का अन्त और ऋतुराज का आगमन होता है उस दिन से इसका आरम्भ होता है। इससे अधिक इसकी और व्याख्या करने की यहां जरूरत नहीं।
बैसाखी- खालसा पंथ का जन्म दिवस
हाथ की अंगलियो की भांति पंच-नद (पंजाब) प्रदेश के लोग जब भी मुठ्ठी बन कर रहे, भारत मां की उन्हेांने सदा ही रक्षा की और पश्चिमी आक्रांताओं को मुंह की खानी पड़ी किन्तु जब यह मुट्ठी खुली, तब तब स्वयं तो वे लुटे पिटे, शेष भारत को भी उन आसुरों ने अपने पांव तले रौंदा। तैमूर के बाद इसी के वंश का बाबर की आंधी अफगानिस्तान में ताण्डव नृत्य करती हुई, भारत की ओर बढ़ती चली आ रही थी, इधर भारत में भी उस समय के शासक अपनी प्रजा पर नाना प्रकार के जुल्म ढा रहे थे। ऐसे में यदि फिर कोई याद आता है तो सिर्फ - ईश्वर ही। यही काल साहित्य के इतिहास में ‘‘भक्ति काल‘‘ कहलाया, क्योंकि दूसरे काल में मां भारती की कोख से कई प्रकाश पुंजों ने जन्म लिया। इन्हीं में से पंजाब ने भी अपनी अशान्त रक्त रंजित भूमि में से एक युग पुरुष को जन्म दिया वे थे बाबा नानक, जिन्हें आज हम सिखों के प्रथम गुरु कहते है। यह गुरु परम्परा दस गुरुओं तक चली। यह भी एक संयोग की बात है कि बाबर से मुगलों तक का साम्राज्य शुरू हुआ और औरंगजेब तक अपने पूरे योवन मं चला फि धीरे-धीरे क्षीण हो गया, इसी पकार बाबा नानक से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक इस पंथ की गुरु गद्दी भी चली। पांचवें गुरु अर्जुन देव जी पर मुगलों का अत्याचार शुरु हेा गया था ओर पहला शहीदी जाम पांचवे गुरु जी ने ही पिया। इसे देखते हुये ‘‘ गुरु हर गोविन्द जी ने ‘मीरी-पीरी‘ को धारण किया। अमृतसर में लोह गढ़ का किला बनवाया, और स्वर्ण मंदिर की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उसी किले से मुगलों के अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष जारी रखा, किन्तु नवें गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान पर तो अति हो गई। इसके बाद जब दसम गुरु गोविन्द राय जी गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस संघर्ष को एक नया मोड़ दिया। धरती को भी जब बहुत कूटा जाए तो वे भी कूटने वाले की आंख में धूल बन कर पड़ने लग जाती है। इसी तरह जुल्म के अधिक जुल्म ने संत को सिपाही बना दिया।
आज से ठीक 297 वर्ष पूर्व इसी मेष की संक्रान्ति सम्वत् 1753 को आनन्दपुर में सिखों के दसम गुरु गोविन्द राय जी ने अपने अनुयाइयों की एक विशाल सभा का आयोजन किया,वहां उन्होंने अपने पांच शिष्यों को देश धर्म की रक्षा हेतु बलि देने को प्रकाश अलग अलग जाति वर्ण ओर प्रदेश से आए पांच व्यक्तियों ने अपने आपको प्रस्तुत किया। गुरु जी उन पंाचों को एक-एक करके पास ही के एक तंबू में ले गए, हर बार एक खून की धारा उस तम्बू से बाहर बहती हुई निकली सब संगत यह दृश्य देख रही थी, किन्तु सब मंत्र मुग्ध थे। वास्तव में उस तंबू में पहले से ही पांच बकरे बांध रखे थे,यह वध उन्हीं बकरों का ही हुआ था। इस प्रक्रिया के द्वारा गुरु जी का अपने शिष्यों परीक्षा लेना अभीष्ट था। उन पांचों व्यक्तियों को बाहर निकाल कर, लोहे के कटोरे में जल अभिमंत्रित कर, इस अमृत को, उन पांचों को उन्होंने पिलाया, तत्पश्चात उनके हाथ से स्वयं पिया। उन पांचों को उन्होंने ‘‘पंच प्यारे‘‘ कह कर पुकारा, इसके साथ ही उन लोगों के नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ दिया, ओर स्वयं भी गोविन्द राय से गोविन्द सिंह बन गये। इसके साथ ही कुछ सिद्धान्तों का भी निर्देश दिया-
गुरु घर जन्म तुम्हारे होए।
पिछले जात धर्म सब खोए।।
चार वर्ण के एकी भाई।
धर्म खलसा पदवी पाई।।
हिन्दूतुर्क ते आही निसारा।
सिख धर्म अब तुमने धारा
राखहु कच्छ के किरपाना।(पंच प्रकाश)
सिख नाम का यही निशाना।।
तभी से यह बैसाखी का पर्व बढ़ी धूमधाम से मनाया जाता है-
शहीदी दिवस बैसाखी -
जलियांवाला बाग कांड ने बैसाखी को शहीदी दिवस बना दिया है जैसे इसे पूर्व में वीर बाल हकीकत के बलिदान ने वसंत पंचमी को हकीकत राय शहीदी दिवस। सन् 1857 की स्वतंत्रता की आग बुझी नही थी, चिंगारी बन गई थी- जो धीरे-धीरे फिर धधकने गयी थी। 1919 के प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के बहलानेहेतु ‘‘माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड‘‘ सुधार बिल बनाया जिसमें अन्य विसगतियों के साथ साथ हिन्दू मुसलमानों के मध्य बनाई खाई को और भी गहरा कर दिया गया, उस समय कई रजवाड़े भी थे, जो अंग्रेजों के पिटठू थे, ‘नरेन्द्र मण्डल‘ बना कर, उनका उसमें विशेष स्थान रखा गया था। कांग्रेस ने इसे स्वीकार नहीं किया। जन असंतोष बढ़ने लगा पंजाब के अमृतसर नगर मे कांग्रेस के दो नेताओं डा0 सत्य पाल और डा0 किचलू को बन्दी बना लिया। 6अप्रेल 1919 को यह घटना घटी, अग्रेजी प्रशासन बोखला उठा, उसने नगर में मार्शल ला लगा दी, इस पर भी बैसाखी वाले दिन जलियावाला बाग में एक विशाल जनसभा हुई। जिन्हेंाने जलिया वाला बाग को देखाा है उन्हें अच्छी तरह से ध्यान होगा कि वह स्थान चारों ओर से आवासीय भवनों से घिरा है, सिर्फ एक बहुत ही तंग मार्ग अन्दर जाने का है। सभा हो रही थी, हजारों की संख्या में स्त्ऱी पुरुष वहां अपने नेताओं के भाषण सुन रहे थे कि अकस्मात् जनरल डायर अपनी फेार्स लेकर वहां पहुंचा और बिना चेतावनी दिए गोली चलानेकी आज्ञा दी। अनेक स़्त्री पुरुष शहीद हो गये, बाहर निकलने के मार्ग पर डायर स्वयं खड़ा था, वहां एक बहुत बड़ा कुआ है कहते है कि वह भी लाशों से भर गया। सारे भारत में इसका विरोध हुआ ही, किन्तु पजाब में तीन महीने तक हड़ताल रही, जो इससे पूर्व कभी न हुई थी और न ऐसी होगी। इस प्रकार इस मेष की संक्रान्ति ने अपने दिनमान पर बैसाखी के पर्व पर बलिदान का पृष्ठ जोड़कर अपने महत्व को और अधिक बढ़ा लिया।
1- हिन्दी दैनिक ‘‘अमर अजाला‘‘ बरेली संस्करण दिनांक 14 अप्रैल 1991 पृष्ठ - 4
2- हिन्दी दैनिक ‘‘अमर उजाला‘‘ बरेली संस्करण दिनांक 13 अप्रैल 1993 पृष्ठ पर ‘‘ज्योतिष की दृष्टि में भारतीय नववर्ष‘‘ नामक शीर्षक के अन्तर्गत कुछ परिवर्तन के साथ पुनप्र्काशित हुआ।