अति दीन हीन मलीन मति मम, भ्रान्तियों से हूॅं घिरा-
धन मान से उन्मक्त होकर, नित्य इस जग में फिरा।
कब नाम भगवन् ले सका मैं, दंभ ही करता रहा-
प्रभु पर तुम्हारा यह कृपा गुण, कष्ट मम हरता रहा।
आश्चर्य। माया से विमोहित, ब्रह्म आदिक देव भी-
जब रूप-महिमा और गुण को, जान कुछ पाते नहीं।
अति मूढ़ माया से भ्रमित मैं, अधम अतिशय पातकी-
तब जान फिर कैसे सकूंगा, अगम महिमा आपकी
हे दीन पालक दीन पर सन्तुष्ट हो मम दुः,ा हरो-
विधिवत, तुम्हारी अर्चना को कर सकूं वह विधि करो।
रख दूर विषयों से मुझे, निज भक्ति का वर दीजिये-
अब शरण आया ‘रवि‘ तुम्हारी, नाथ रक्षा कीजियें।
आध्यात्मिक पत्रिका- ‘प्रेम संदेश‘ वर्ष - 17, अंक-9, सन् 1961, संपादक-श्रीकान्त मिश्र, प्रेमधाम, वृन्दावन।
2-सत्यनारायण व्र्त कथा का अंश