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विनय (कविता)

 

अति दीन हीन मलीन मति मम, भ्रान्तियों से हूॅं घिरा-

धन मान से उन्मक्त होकर, नित्य इस जग में फिरा।

कब नाम भगवन् ले सका मैं, दंभ ही करता रहा-

प्रभु पर तुम्हारा यह कृपा गुण, कष्ट मम हरता रहा।

आश्चर्य। माया से विमोहित, ब्रह्म आदिक देव भी-

जब रूप-महिमा और गुण को, जान कुछ पाते नहीं।

अति मूढ़ माया से भ्रमित मैं, अधम अतिशय पातकी-

तब जान फिर कैसे सकूंगा, अगम महिमा आपकी

हे दीन पालक दीन पर सन्तुष्ट हो मम दुः,ा हरो-

विधिवत, तुम्हारी अर्चना को कर सकूं वह विधि करो।

रख दूर विषयों से मुझे, निज भक्ति का वर दीजिये-

अब शरण आया ‘रवि‘ तुम्हारी, नाथ रक्षा कीजियें।




आध्यात्मिक पत्रिका- ‘प्रेम संदेश‘ वर्ष - 17, अंक-9, सन् 1961, संपादक-श्रीकान्त मिश्र, प्रेमधाम, वृन्दावन।

2-सत्यनारायण व्र्त कथा का अंश