पन्द्रह मार्च 1858 को लखनऊ के पतन और उधर दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के साथ ही बहादुर शाह जफर को भी बन्दी बना लिया गया। इससे नाना साहब का दिल टूट गया, वह शहजादे फीरोज शाह को साथ लेकर बरेली आ गये। यहां आकर उन्होंने नौमहल्ला में जिस जगह आज राजकीय इण्टर कालेज है, डेरे डाल दिए। अंग्रेजों को जब नाना साहब के बरेली पहुंचने की सूचना मिली, तो उनके रुहेलखण्ड पर पुनः अधिकार जमाने की धुन सवार हो गई। क्योंकि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व भी 1801 से बरेली पर अंग्रेजों का अधिकार हो चुका था। अंग्रेजों की सेना 1858 मे रामपुर, फरीदपुर और बदायूं की ओर से बरेली को घेरने के लिए बढ़ने लगी।
3 मई 1858 को नबाव खान बहादुर खान (जो कि उससमय रुहेलखण्ड के नबाव थे, जिन्हें यहां के निवासियों ने इस क्रान्ति में अपना नबाव बनाया था) की सेना ने नकटिया पार कर फरीदपुर मार्ग पर मोर्चा सम्भल लिया। 5 मई को रुहेलखण्ड की सेना और अंग्रेजो की सेना में घोर युद्ध हुआ। नबाव की सेना बहुत ही वीरता से लड़ी, किन्तु उसे पीछे हटना पड़ा। उसी दिन रात्रि को मीरगंज की ओर से भी अंग्रेजों की सेना बढ़ती हुई बरेली आ पहुंची। किले पर भयंकर युद्ध हुआ। खान बहादुर खान और शहजादा फीरोज शाह ने बरेली को तीन तरफ से घिरा देख, रात्रि को ही अपने कुछ साथियों सहित पीलीभीत की ओर भाग गये। नाना साहब कहां गये उनका कुछ पता नहीं चला।
किवंदतियां बहुत है।
6मई 1858 को प्रातः होते ही अंग्रेज सेना को बरेली पर अधिकार करने के लिए पग-पग पर रुहेलखण्ड की सेना से लोहा लेना पड़ा। कब तक लड़ते कुछ शूरवीर- बरेली का पतन हो गया। इतिहासकार दिल्ली में तो नादिर शाह की लूटमार का उल्लेख करते हैं, किन्तु उससे भी कहीं अधिक क्रूरता से अंग्रेजों ने बरेली में मारधाड़ और लूटपाट की। बरेली के लिए उनके दिल में प्रतिशोध की आग धधक रही थी।
इस गुलामी के जुआं को रुहेलखण्ड को पहनाने में अंग्रेजों को सहयोग दिया पंजाब की सिख ओर गोरखा पलटनों ने। नबाव शान बहादुर खान और दीवान शोभाराम, जो यहां से भाग कर नेपाल चले गये थे। वहां की सरकार ने उन्हें अग्रेजों के हवाले कर दिया।अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बना पहली जनवरी 1860 को बरेली ले आएं ओर उन्हें 24 मार्च 1860 को कोतवाली के सामने (आज जिसे पुरानी कोतवाली कहते है, यहां पर अब शास्त्री मार्केट है) फांसी दे दी गई। उनको बिना कफन जिला जेल के दरवाजे के पास दफन कर दिया। दीवान शोभाराम को काले पानी भेज दिया गया, वहीं उनका स्वर्गवास हो गया।
अंग्रेज शासन ने1956 की क्रान्ति में भाग लेने के आरोप में सैकड़ों नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया। नबाव के सहयोगियों और रिश्तेदारों को जिनकी संख्या 256 थी बरेली कमिश्नरी के प्रांगणमे एक विशालवट वृक्ष पर लटका कर उन्हें फांसी देदी गई। आजादी की रक्षा करने वाले को यही ईनाम मिला करता है।
अब वह बट वृक्ष भी उस करुण कथा को सुनाते-सुनाते थक हार कर टूट गया है क्योंकि वह जानता था कि आने वाली पीढी उन बलिदानों का उपहास उड़ायेगी, अपने आचरणों से, जिन्हें उसने देखा था।
स्वरूप बदला स्वतंत्रता संग्राम का
जातियां वहीं जीवित रहती है, जो देश जाति के लिए मर मिटना जानती है। स्वाधीनता की लड़ाई जारी रही। रण-भूमि का स्थान आन्दोलनों ने ले लिया । सन् 1801 में बरेली को अवध के नबाव सआदत अली ने जब से इसे अंग्रेजो के हवाले किया तब से यहां के नागरिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा की आग सुलगने लगी थी, उनके व्यवहार और अत्याचारों को देख कर 1814 में बरेली के नागरिकों पर हाउस टैक्स लगा दिया गया। जिसके विरूद्ध पहली बार नगर में हड़ताल हुई, उसका नेतृत्व मुफती मंुहुम्मद एवज ने किया, दूसरी बार फिर 1816 में शासन के अत्याचारों के विरूद्ध बेमिसाल हड़ताल हुई, इक्के तांगे वालों ने भी इसमें भाग लिया। एक बड़ा जुलूस, फिर मुफती मुहम्मद एवज के ही नेतृत्व में कलक्टर के बंगले पर गया। इन प्रदर्शनकारियों का स्वागत पुलिस ने लाठी चार्ज और गोलियों से किया जिससे दो व्यक्ति मारे गये ओर कई घायल हुए। 1837 में अंग्रेजों ने हिन्दु-मुस्लिम दंगा कराने का प्रयत्न किया, नगर के प्रमुख हिन्दू नागरिक चौधरी बसंल राय की हत्या एक मुसलमान से करवा कर। किन्तु उन्हीं दिनो भीषण अकाल भी पड़ा जिसने लोगों में फिर से एकता की भावना पैदा कर दी।
जन आन्दोलन कांग्रेस के हाथ में
यूं तो बरेली की जनता 1813 सेही अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के विरूद्ध अपने अधिकारों के लिए यदा-कदा आन्दोलन करती ही रही, किन्तु 1920 में महात्मा गांधी के आगमन के पश्चात उन आन्दोलनों की बागडोर भारतीय कांग्रेस जैसे ऐक देश व्यापी सशक्त संगठन के हाथ में आ गई। 1928 में विदेशी माल का बहिष्कार किया गया, उसकी होली जलाई गई। फिर 1939 में व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरु हुआ तो बरेली भी पीछे न रहा। 1942 के आन्दोलन ‘भारत छोड़ो‘ जैसे आन्दोलन में भी बरेली ने बढ़चढ़ कर भाग लिया जेले भर दी दीवानों ने।
स्वराज्य का प्र्रथम उद्घोषक
सन् 1857 की का्रन्ति के मुख्य सूत्रधार थे नाना साहब पेशवा, तातियां टोपे, महारानी लक्ष्मीबाई, मंगल पाण्डे, कुंवर जगदीश सिंह और मौलवी अलीमउल्ल। किन्तु इन सबको अनुप्रेरित करने और मार्ग प्रदर्शन करने वाला, परदे के पीछे एक और ही प्रकाश पुंज था- वे थे महर्षि दयानन्द सरस्वती, जिनसे यह सब लोग यदा कदा मंत्रणा किया करते थे। उन्हेांने ही लोकमान्य बालगंगा धर तिलक से भी बहुत पहले भाारतवासियों को यह मंत्र दिया था कि ‘सुराज से स्वराज्य श्रेष्ठतम है‘ यह वाक्य उन्होंने तत्कालीन वाइसराय लार्ड नार्थ ब्रुक से, उस समय कहा था जब लार्डब्रुक ने उन्हें कलकत्ता बुला कर अंग्रेजोंके हित के लिए प्रचार करने हेतु कहा था। इनके साथ उन्होंने जोर दे कर यह भी कहा था कि मैं स्वराज्य के लिए संघर्ष भी करता रहूंगा। इसी पर लार्ड ब्रुक ने उन्हें बागी फकीर कह कर याद किया। वहीं महर्षि दो बार 1857 की क्रान्ति के बाद बरेली पधारे, पहली बार 1879 में दूसरीबार 1883 में दोनो बार कश्मीर कोठी में ही ठहरे।
कौन-कौन से जननायक बरेली आए-
स्वाधीनता संग्राम के महायज्ञ में बरेली नगर और जनपद ने कम आहूतियां इस हवन कुंड में नहीं डाली है। 1883 के पश्चात् जो प्रमुख महानुभाव बरेली आए थे - वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पहली बार 1920 में दूसरी बार 1921 में। 1920 में उनके साथ मौलाना मुहम्मद अली, शौकर अली और स्वामी सत्यदेव जी, दूसरी बार थे मौलाना अबुल कलाम आजाद, उनकी दोनों बार की जन सभाओं में बहुत भीड़ थी। सन् 1926 मे काकोरीकेस के पंच प्राणों में से एक प्राण बरेली के दामोदर स्वरूप सेठ थे। जिन्होंने अपने बलिदानों से बरेली की माटी को सुगंधित कर दिया। 1929 में बरेली नगर के लाखनगजमेंएक विराट रुहेलखण्ड राजनीति सम्मेलन हुआ। जिसमें पं0 जवाहर लाल नेहरु, श्रीमती सरोजनी चायडू और डा0 सैफदॅदीन किचलू उसमें भाग लेने हेतु आए थे। 1934 में बाबू राजेन्द्र प्रसाद जी का भी यहां आगमन हुआ था। आप उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। आजाद हिन्द फौज के श्री शाहनवाजखांन भी आजादी से पूर्व यहां आए थे।
जेल रिकार्ड से-
बरेली में तीन कारावास है, जिला जेल, केन्द्रीय जेल (जिसे अंग्रेजों के समय काला पानी कहा जाता था) और किशोर सदन (बच्चों की जेल) जिला जेल से स्वाधीनता सेनानियोंके नामोंकी जो हस्तलिखित पुस्तिका मिली उसके अनुसार उस सूची में 1921 से 1947 तक कोई 1630 स्वतंत्रता सेनानी इस बन्दी गृह में बन्द रहे और केन्द्रीय जेल में 5671 अकेली बरेली नगर और जनपद से स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या 425 थी। इन दोनों जेलों में देश की जिन प्रमुख विभूतियों को बन्दी बना कर रखा गया, उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- 1- पं0 जवाहर लाल नेहरु, 2- पं0 गोविन्द बल्लभपंत, 3- पं0 धर्मदत्त वैद्य, 4- पं0 दरबारी लाल शर्मा, 5- पं0 दीनानाथ मिश्रा, 6- सेठ दामोदर स्वरूप 7- श्री नौरंग लाल एडवोकेट, 8- श्री प्रताप चन्द्र आजाद, 9- श्री राममूर्ति जी, 10- श्री ब्रज मोहन शास़्ी, 11- पं0 द्वारका प्रसाद, 12- श्री अब्दुल वाजिद, 13- साहू गोपी नाथ, 14- श्री चिंरौजी लाल गुप्ता, 1ृ5- डा0 सम्पूर्णानन्द, 16- श्री महावीर, 17- श्री राम मनोहर लोहिया, 18- श्री रफी अहमद किदवई, 19- श्री कृष्ण दत्त पालीवाल, 20- श्री अलगोराय शास्त्री, 21- श्री नारायण दत्त तिवारी, 22- श्री त्रिवेणीसहाय, 23- श्री हर सहाय, 24- श्री सतीश चन्द्र, 25- स्वामी शिवा नन्द, 26- स्वामी सत्यदेव, 27- महन्त जगन्नाथ(टीवरी नाथ मंदिर वाले) 28- श्री अब्दुल रहमान, 29- श्री राजाराम शास्त्री 30- पं0 छोटे लाल, 31- श्री जगमोहन नेगी आदि।
इस संग्राम में महिलायें भी पुरुषों से पीछे न थी किन्तु उनको जिला जेल मे ही रखा गया। उन देवियों में से कुछ नाम - 1- श्रीमती विद्यावती पत्नी श्री प्रभु दयाल, 2- श्रीमती तारावती पत्नी श्री चिरौजी लाल गुप्ता, 3- श्रीमती किरन देवी पत्नी श्री बाबू राम एडवोकेट, 4- श्रीमती शीला देवी, 5- श्रीमती राजकुमारी, 6- श्रीमती चन्द्रावती, 7- श्रीमती बच्ची देवी, 8- श्रीमती मिन्तो देवी, 9- श्रीमती गया देवी और 10- श्रीमती पारबती देवी आदि- और भी अनेक नाम हैं जिनका यहां उल्लेख नहीं हो सका- उन्हें बार-बार नमन।
1- हिन्दी दैनिक अमर उजाला, बरेली संस्करण, 6 मई 1993, पृष्ठ- 4